Book Title: Neminath Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ ८४७ बीसत्रों परिच्छेद स्वीकार कर लिया । उन्होंने अन्तिम बार अपनी प्राणप्रिय नगरी पर एक दृष्टि डाली। इसके बाद वे बलराम के साथ पाण्डु- मथुराके लिये अग्नि कोणकी ओर चल पड़े । कृष्णके चले जानेपर भी द्वारिका नगरी उसी तरह धॉय धाँय जलतीं रही। इस विपत्तिका शिकार होनेबालोंमें बलरामका एक पुत्र कुब्जवारक भी था । वह चरम शरीरी था । उसने राजमहलकी अट्टालिका पर चढ़, दोनों हाथ उठा, उच्च स्वरसे कहा :-- "इस समय मैं नेमिनाथ भगवानका शिष्य हॅू। कुछ समय पहले भगवानने मुझे चरम शरीरी और मोक्षगामी बतलाया था । यदि जिनाज्ञा सच है, तो यह अग्नि मुझे क्यों जला रही हैं ?" ★ उसके यह वचन सुनते ही जम्भक देव उसे उठाकर प्रभुके पास ले गये । उस समय नेमिनाथ भगवान पल्लव देशमें विराजमान हो रहे थे । वहाँ पुण्यात्मा जवारकने दीक्षा ले ली । उसके सिवा नगरमें जितने मनुष्य थे, वे सभी उसमें स्वाहा हो गये । बलराम और कृष्णकी जिन स्त्रियोंने दीक्षा न ली थी, उन्होंने भी

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433