Book Title: Neminath Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

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Page 396
________________ • ७४८ नेमिनाथ-चरित्र लोकोक्ति भी आज यथार्थ प्रमाणित हो गयी ; क्योंकि पहले आप मेरे पति कहलाये, किन्तु बादको कुछ भी न हो सका। मैंने पूर्व जन्ममें दम्पतियोंका वियोग किया होगा, इसीलिये इस जन्ममें मुझे आपके समागमका सुख उपलब्ध न हो सका!" • इस प्रकार विलाप करती हुई राजीमती पुनः जमीन पर गिर पड़ी। होश आने पर उसने अपनी छाती पीटते पीटते अपना हार तोड़ डाला और अपने कङ्कण भी फोड़ डाले। उसकी यह व्याकुलता देखकर उसकी सखियोंने नेमिकुमार की ओरसे उसका ध्यान हटानेके उद्द शसे कहा :- हे सखी! नेमिनाथका स्मरण कर अब तुम व्यर्थ ही अपने जीको दुःखित क्यों करती हो ? उससे । अब तुम्हें प्रयोजन ही क्या है ? वह तो स्नेह रहित, स्पृहा रहित, और लोक व्यवहारसे विमुख है। जिस तरह जंगलके पशु बस्तीसे डरते हैं, उसी तरह वह भी गार्हस्थ्य जीवनसे डरता है। वह दाक्षिण्य रहित, स्वेच्छाचारी और निष्ठुर था। यदि चला गया तो उसे जाने दो।

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