Book Title: Neminath Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ 'नेमिनाथ-चरित्र __ नेमिकुमारका यह वचन सुनतेही शिवादेवी और समुद्रविजय मूछित होकर जमीन पर गिर पड़े। अन्यान्य स्वजनोंके नेत्रोंसे भी दुःखके कारण अश्रुधारा बहने लगी। यह देखकर कृष्णने सब लोगोंको सान्त्वना देकर शान्त किया। तदनन्तर उन्होंने नम्रतापूर्वक नेमिकुमारसे कहा :-हे बन्धो ! हम सबलोग तुम्हें सदा आदरकी दृष्टिसे देखते आयें हैं। इस समय भी हमलोगोंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया, जिससे तुम्हें किसी प्रकारका दुःख हो। तुम्हारा रूप अनुपम और यौवन नूतन है। तुम्हारी वधू राजीमती भी रूप और गुणोंमें सर्वथा तुम्हारे अनुरूप ही है। ऐसी अवस्थामें ठीक विवाहके समय, तुम्हें यह वैराग्य क्यों आ रहा है ? जो लोग निरामिष भोजी नहीं है, उनके यहाँ ऐसे समयमें पशु-पक्षियोंका वध होता ही है, इसलिये उसका संग्रह भी एक साधारण घटना थी। पारन्तु अब तो तुमने उनको बन्धन-मुक्त कर दिया है, इसलिये उस सम्बन्धमें अब कोई शिकायतका स्थान नहीं, हैं। अतएव अब तुम्हें अपने माता-पिता और वन' ओंका मनोरथ

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433