Book Title: Namaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Author(s): Dhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
Publisher: Jain Sahitya Vardhak Sabha
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________________ 182 षट्खण्डागमस्य संदर्भ। [प्राकृतं भेदो निर्मलानिर्मलावस्थावस्थितदर्पणस्यापि भेदापत्तेः / नावयवावयविकृतो भेदः अवयवस्यावयविनोऽव्यतिरेकात् / संपूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्तेः / न चाचार्यादिस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयकर्तृणि रत्नैकदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भात् / तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम्।। 5 विगताशेषलेपेषु सिद्धेषु सत्स्वर्हतां सलेपानामादौ किमिति नमस्कारः क्रियत इति चेन्नैष दोषः, गुणाधिकसिद्धेषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात् / असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत् प्रसादादित्युपकारापेक्षया वाऽऽदावर्हन्नमस्कारः क्रियते / न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्तेः शंका-संपूर्ण रत्नो अर्थात् पूर्णताने प्राप्त रत्नत्रयने ज देव मानी शकाय छे / रत्नोना एक देशने देव मानी न शकाय / 10 समाधान–एम कहेवू पण उचित नथी / रत्नोना एक देशमां देवपणानो अभाव मानी लेतां रत्नोनी समग्रतामां पण देवपणुं बनी शकतुं नथी / अर्थात् जे कार्य जेना एक देशमा जोवातुं नथी ते तेनी समप्रतामा क्याथी आवी शके ? शंका आचार्य वगेरेमां स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मोनो क्षय करवामां समर्थ थई शकतां नथी / केमके, तेमनां रत्न एकदेशीय छ / 15 समाधान-एम कहेवु ठीक नथीं। केमके, जे प्रकारे पलालराशिना दाहरूप अग्नि समूहनुं कार्य अग्निना एक कणथी पण जोई शकाय छे ए ज प्रकारे अहीं पण समजवू जोईए / एटला माटे आचार्य आदि पण देव छे, ए वात निश्चित थई जाय छे।। शंका-सर्व प्रकारना कर्मलेपथी रहित सिद्ध परमेष्ठी विद्यमान रहेता अघाती कर्मोना लेपथी युक्त अरिहंतोने आदिमां नमस्कार शा माटे करवामां आवे छे ? 20 समाधान-एमां कई दोष नथी। केमके, सौथी अधिक गुणवाळा सिद्धोमां श्रद्धानी अधिकताना कारणे अरिहंत परमेष्ठी ज छ। अर्थात् अरिहंत परमेष्ठीना निमित्तथी ज अधिक गुणवाळा सिद्धोमां सौथी वधारे श्रद्धा उत्पन्न थाय छे, अथवा जो अरिहंत परमेष्ठी न होत तो आपणने आप्त, आगम अने पदार्थ- परिज्ञान थई शकत नहीं, परंतु अरिहंत परमेष्ठीना प्रसादथी आपणने आ बोधनी प्राप्ति थई छे / एटला माटे उपकारनी अपेक्षाथी पण आदिमां अरिहंतोने 25 नमस्कार करवामां आवे छे। जो कोई कहे के, आ प्रकारे आदिमां अरिहंतोने नमस्कार करवो ए तो पक्षपात छे / त्यारे एनी सामे आचार्य उत्तर आपे छे के, एवो पक्षपात दोषनो उत्पादक नथी। परंतु शुभ पक्षमा रहेवाथी ते कल्याणर्नु ज कारण छ / तथा द्वैतने गौण करीने अद्वैतनी प्रधानताथी करायेला नमस्कारमा द्वैतमूलक पक्षपात बनीये शकतो नथी / 30 विशेषार्थ-पक्षपात तो त्यां ज संभवे छे ज्यां बे वस्तुओमांथी एकनी तरफ अधिक आकर्षण होय छे, परंतु अहीं परमेष्ठीओने नमस्कार करवामां दृष्टि प्रधानतया गुणोनी तरफ रहे छ / वस्तुभेदनी प्रधानता नथी / एटला माटे अहीं कोई प्रकारे पक्षपातनो संभव नथीं।