Book Title: Namaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Author(s): Dhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
Publisher: Jain Sahitya Vardhak Sabha

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Page 514
________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / . .. 467 एएहिं नवपएहिं सिद्धं सिरिसिद्धचक्कमेयं / / तस्सुद्धारो एसो पुव्वायरिएहिं निद्दिवो // 195 // 5 // व्याख्या-एतैर्नवभिः पदैः सिद्धं-निष्पन्नं यदेतत् श्रीसिद्धचक्रं, तस्य-सिद्धचक्रस्य एष उद्धारः पूर्वोचार्यै निर्दिष्ट:-कथितः // 195 // (5) गयणमकलिआयं(वं )तं उड्डाहसरं सनाय-बिंदु-कलं / सपणवबीआणाहयमंतसरं सरह पीढम्मि // 196 // 6 // . व्याख्या-अथ ग्रन्थकार एकादशगाथाभिः सिद्धचक्रोद्धारविधिमाह- गयणे' त्यादि, अत्र गगनादिसंज्ञा मन्त्रशास्त्रेभ्यो ज्ञेया, तत्र गगनशब्देन 'ह' इत्यक्षरमुच्यते, 'पीढम्मि' त्ति मूलपीठे-यन्त्रस्य सर्वमध्ये 'ह' इत्यक्षरं यूयं स्मरत, इह च स्मरणमेवाधिकृतम् / स्मरणस्याशक्यत्वे पदस्थध्यानसाधनार्थ मनोज्ञद्रव्यैर्वहिकापट्टादौ लिखनमपि पूर्वाचार्यैरानातम् / एवमग्रेऽप्यूह्येत / तत्रादौ 'ह' काराक्षरं लेखनीय-10 मिति प्रकृतम् , तत्कीदृशम् ? इत्याह-अस्य अकाराक्षरस्य कलिका व्याकरणसंज्ञामयी वक्रा 'ड' इत्यक्षररूपा, तयाऽवन्तं-सहितं, आदौ कलिकया युक्तं ततोऽह' इति स्यात् / पुनः तद्गगनबीजं कीदृशम् ?'उडाहसरं' ऊधिः सह रेण-रकारेण वर्तत इति सरं हकारस्योलमधश्च रकारो दीयते, ततोऽह' इति जातम् / पुनः कीदृशं तत् ? 'सनादबिन्दुकलं' नादोऽर्द्धचन्द्राकारोऽक्षरस्योपरि अनुनासिकः बिन्दुकला च पूर्णोऽनुस्वारः ततो नादश्च बिन्दुकला च ताभ्यां सहितं ततो 'ऽहँ' इति जातं, पुनः कीदृशम् ? 15 'सपणवबीयाणाहयं' प्रणव 'ॐ'कारः, बीजं ह्रीं'कारः, अनाहतं च कुण्डलाकारं, ततश्च द्वन्द्वस्तैः सहितम् / ... आ नवपदोथी सिद्ध एवं जे आ श्रीसिद्धचक्र छे, तेनो पूर्वना आचार्योए कहेल आ (वक्ष्यमाण) उद्धार छे' // 195 // (5) [अहीं अनुवादमा व्याख्याना विवेचननो पण समावेश कयों छे] मूळपीठ एटले यंत्रना मध्यभागमा गगन एटले 'ह', (ते 'ह' कारनी आगळ) 'अ' कलिका 20 एटले अकार अवग्रह 'ड' रूपे तथा ते 'ह'कारना ऊपर अने नीचे 'र' कार एटले 'ऽह' पद थाय / ते ('ह'कार)नी ऊपर नाद ( अर्धचन्द्राकार अनुनासिक रूपे) अने बिन्दुकला (पूर्ण अनुस्वार रूपे) स्थापन करवी / तेथी 'ऽहूँ' बन्यु / (जूओ यंत्र-चित्र नं० 17) तेने प्रणव एटले 'ॐ'कार, बीज. एटले ह्रीं'कार अने अनाहत एटले बे कुंडल 'O' थी वेष्टित करवों / 1 अहीं बतावेल यंत्रनो आम्नाय, जो के स्मरणमां लाववानो अधिकार छे परंतु एवं स्मरण अशक्य होय तो पदस्थ ध्याननी साधना माटे वस्त्रपट ऊपर सारां शुद्ध द्रव्योथी आलेखन करवानुं पूर्वाचार्योए जणाव्युं छे। 2 अहीं टीकाकारे-'अकाराक्षरस्य कलिका व्याकरणसंज्ञामयी वका '5' इत्यक्षररूपा' अर्थात् अकार अक्षरनी . कलिका एटले व्याकरणनी संज्ञावाळी वक्र '' आकृति, जेने अवग्रह कहेवामां आवे छे-एवं निरूपण कयु छे / ज्यारे श्रीसिंहतिलकसरि ते अवग्रहरूप वक्राकृति अकार खयं भुजगाकृति एटले सर्पाकृति कुंडलिनी रूपे छे (केटलाक यंत्रोमां वक्राकृति ''नो व्याकरणना नियमो मुजब लोप करी नाखवामां आवे छे) ते दर्शावे छे "अकारो भुजगाकृत्या कुण्डली विश्व (रश्च ?) जन्मभूः। तत्परो हः शिवः स्वात्मा राजते अहमित्यतः॥ प्रायो यन्त्रे परैः हूं स्यात् कुण्डलीजन्मभूज्झितः। अहमित्यादिगणानादूर्ध्व रत्नत्रयाश्रयः॥" 3 'सिरिसिरिवाल कहा' नी टीकामां कडं छे के 'नादश्च बिन्दुकला च ताभ्यां सहितम्' एथी श्री टीकाकार भगवान 'बिन्दुकला ने एक ज वस्तु माने छे. बीजुं नादनी व्याख्या करता तेओ कहे छे के 'नादोऽर्द्धचन्द्राकारोऽक्षरस्योपरि अनुनासिकः' अर्थात् अक्षर उपर अर्धचंद्राकारे (-) मूकातो जे अनुनासिक ते नाद छ। बिंदुकलाने तेओ पूर्ण अनुखार (.) कहेछ (बिन्दुकला च पूर्णोऽनुस्खारः)। आ बधुं कथन कोइ मत-विशेषने आश्रयीने होय एम लागे छ /

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