Book Title: Namaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Author(s): Dhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
Publisher: Jain Sahitya Vardhak Sabha

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Page 523
________________ 476 सिरिरयणसेहरसूरिविरइय सिरिसिरिवालकहा'तो सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदब्भो। [प्राकृत एयं च विमलधवलं जो झायइ सुकमाणजोएण / तव-संजमेण जुत्तो सो पावइ निजरं विउलं // 208 // 18 // व्याख्या-एतच्च विमलं -निर्मलं अत एव धवलं उज्वलं श्रीसिद्धचक्रं यः पुमान् शुक्लध्यानयोगेन उज्ज्वलध्यानव्यापारेण ध्यायति स विपुलां –विस्तीर्णा निर्जरां प्रामोति बहुकर्मक्षयं करोतीत्यर्थः, 5 कीदृशः सः? -तपःसंयमाभ्यां युक्तः // 208 // (18) अक्षयसुक्खो मुक्खो जस्स पसाएण लब्भए तस्स / झाणेणं अन्नाओ सिद्धीओ इंति किं चुजं // 209 // 19 // व्याख्या-अक्षयं सुखं यस्मिन् स ईदृशो मोक्षो यस्य श्रीसिद्धचक्रस्य प्रसादेन प्राणिभिर्लभ्यते तस्य ध्यानेन अन्याः सिद्धयो भवन्ति, तत्र किञ्चोघं- किमाश्चर्यमित्यर्थः // 209 // (19) एयं च परमतत्तं परमरहस्सं च परममंतं च / परमत्थं परमपयं पनत्तं परमपुरिसेहिं / 210 // 20 // व्याख्या-एतच्च परमतत्त्वं- उत्कृष्टं तत्त्वम् , च-पुनः परमं रहस्यं–गोप्यं, च-पुनः परमो __ मन्त्रः, पुनः परमार्थः, पुनः परमपदं परमपुरुषैर्भगवद्भिः प्रज्ञप्तं - प्ररूपितम् // 210 // (20) ___ तत्तो तिजयपसिद्धं अट्ठमहासिद्धिदायर्ग सुद्धं / 15 सिरिसिद्धचकमेअं आराहह परमभत्तीए // 211 // 21 // व्याख्या-ततस्तस्मात् कारणात् भो भो भव्याः! त्रिजगति-लोकत्रये प्रसिद्धम् , अणिमाद्यष्टमहासिद्धिदायकं शुद्धं-निर्मलम् एतत् श्रीसिद्धचक्रं परमभक्त्या यूयं आराधयत सेवध्वम् // 211 // (21) , निर्मल होवाना कारणे ज उज्ज्वल एवा आ सिद्धचक्रनुं जे पुरुष शुक्लध्यानना योगथी ध्यान धरे छे ते तप अने संयमथी भारे निर्जरा एटले अनेक कर्मोनो क्षय करे छे / 208 // (18) 20 जेमां अक्षय सुख रहेलुं छे एवो मोक्ष, जे (सिद्धचक्र )ना प्रसादथी (प्राणीओने )मळे छे तेना ध्यानथी बीजी (लौकिक ) सिद्धिओ पण प्राप्त थाय एमां तो नवाई ज शी? // 209 // (19) आ (सिद्धचक्र ) परमतत्त्व (ध्येय ) छे, परमरहस्यरूप एटले गोपनीय छे (गमे तेवा मानवीने देवा योग्य नथी), आ परममंत्र छे, परम अर्थवाळु छ, परम पदोवाळु छ, तेनुं उत्कृष्ट एवा आप्त पुरुषोए निरूपण कयुं छे // 210 // (20) B आ कारणथी जगतमा प्रसिद्ध, अने अणिमा वगेरे आठ सिद्धिओने आपनार, निर्मळ एवा आ सिद्धचक्रनी तमे आराधना करो // 211 // (21) - सिरिसिरिवालकहा संदर्भपरिचय - बृहद्गच्छीय श्रीहेमतिलकसूरिना शिष्य श्रीरत्नशेखरसूरिए वि. सं. 1428 मां प्राकृतमा 'सिरिसिरिवालकहा' नामे ग्रंथ रच्यो छे / तेना उपर खरतरगच्छीय श्रीक्षमाकल्याणगणिए व्याख्या पण रची छे। 30. आ ग्रंथमां कथानी साथोसाथ सिद्धचक्रयंत्रालेखनविधि, पंचपरमेष्ठी आराधन, स्तुत्यास्मक नवपदनां नवक-ते पैकी परमेष्ठीनवक वगेरे नमस्कारविषयक उपयोगी संदर्भो टीका साथे तारवीने अनुवाद सहित अहीं प्रगट कर्या छ। .. सिद्धचक्रयंत्र' जे श्रीयशोविजयजी महाराजे अमने प्रसिद्धि अर्थे आप्युं छे ते पण अहीं प्रगट करीए छीए।

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