Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कि 'सर्वथैकान्त प्रतिक्षेप लक्षणोऽनेकांत:' अर्थात् अनेकांत मात्र एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रकाशक है। स्याद्वाद के आधार
सम्भवतः यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है? स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलत: चार कारण हैं
१. वस्तुतत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता, २. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, ३. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, तथा
४. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता । अनेकांतवाद का भाषिक पक्ष : सप्तभंगी
सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है। “है" और "नहीं हैं" हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभी-कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है” (विधि)
और "नहीं है' (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं अर्थात् सीमित शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रगट करने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प "अवाच्य' या अवक्तव्य' का सहारा लेते हैं, अर्थात शब्दों के माध्यम से "है" और "नहीं है' की भाषायी सीमा में बाँध कर उसे कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य ये तीन असंयोगी मौलिक भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य और स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात्-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य, यह त्रिसंयोगी भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य, इन तीन ही रूपों में होती है। अत: उससे तीन ही मौलिक भंग बनते हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणित शास्त्र के संयोग नियम (Law of Combination) के अधार पर सात भंग ही बनते हैं, न कम न अधिक। अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए यह कहा है कि जिज्ञासा
और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार के ही हो सकते हैं। अत: जैन आचार्यों की सप्तभंगी की यह व्यवस्था निर्मूल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को लेकर एक-एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ तो बनाई जा सकती हैं। किन्तु अनन्तभंगी नहीं । श्वेताम्बर आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी स्कन्ध के संबंध में जो
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