Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार
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निपात शब्द है (पंचास्तिकाय टीका)।
मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक एक अव्यय माना है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर अनैकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है। मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सजग थे कि आलोचक या जन साधारण द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ “एव” शब्द के प्रयोग की योजना भी की है, जैसे “स्यादस्त्येव घट:' अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा ही है। यह स्पष्ट है कि “एव'' शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है। "स्यात्' तथा “एव'' शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता को संशयात्मकता को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। वस्तुत: इस प्रयोग में “एव' शब्द 'स्यात्' शब्द की अनिश्चितता को समाप्त कर देता है और "स्यात्" शब्द “एव" शब्द की निरपेक्षता एवं एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर कथित वस्तु-धर्म की सीमा नियत करते हए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान प्रस्तुत करते हैं। अत: स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनावाद नहीं कहा जा सकता है। “वाद" शब्द का अर्थ कथनविधि है। इस प्रकार स्याद्वाद सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षिक निर्णय पद्धति का सूचक है। वह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध निर्णयों को इस प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य "अनुक्त'' अनेकानेक धर्मों एवं सम्भावनाओं (पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुत: स्याद्वाद हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष एवं अहिंसक तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका प्रत्येक भंग अनैकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। संक्षेप में स्याद्वाद अपने समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकांत है। सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथन-पद्धति या वाक्य योजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों की संभावना का निषेध न करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। इसी प्रकार अनेकान्तवाद भी वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर अनेक निर्णय (कथन) दिये जा सकते हैं अर्थात् अनेकान्त वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षों की सम्भाव्यता का सिद्धांत है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा है
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