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ज्ञान तो ज्ञान ही है, यह ज्ञान थोड़े ही कर्मों पर आधारित है. ज्ञान तो जानने वाला स्वयं की ही योग्यता से जानता है कैसे भी हों कर्मों के उदय, ज्ञान को इस कर्मों के उदय से कोई वास्ता ही नहीं. ज्ञान तो सिर्फ सभी को जानता ज्ञायक ही है
शुभाशुभ संयोग हों, भाव हों, लेकिन वे तो मैं नहीं, मेरे नहीं इन सबको जानने वाली ज्ञान की पर्याय, व्यक्त पर्याय मेरी है. जो संयोग मेरे हैं ही नहीं, तो फिर उनसे संबंध भी कैसे ? यह संबंध सारे हे कृत्रिम, क्षणिक. मैं तो सुख शांतिमय ज्ञायक ही हूं
जीव तू तो जीव, एक महा पदार्थ ही है, एक बार मान तो
चैतन्य, जीव द्रव्य राग-द्वेष, पुण्य-पाप, शुभाशुभ भावों से भिन्न ही है. जीव इन सबके साथ रहता हुआ भी प्रथक ही स्वयं से, स्वयंमें परिपूर्ण ही है. सारे के सारे संबंध तो उपचार ही रह जाते हैं, मैं तो असंगी, अकर्ता, वीतराग भाव, वीर्यवान ज्ञायक ही हूं
मार्ग तो, मोक्ष का, मुक्ति का एक ही है तीन काल में, एवं तीनों लोक में, यह शुद्ध बुद्ध जीव कभी भी किसीसे भी कोई भी प्रकार का एकत्व, ममत्व करता नहीं, कर सकता नहीं. स्वयं में ही परिपूर्ण ज्ञानानंद कैसे हो कर्ता और भोक्ता? मैं ज्ञायक ही हूं
जीव तू एक बार मान तो
चक्रवर्ती संपदा और इन्द्र सरीखा भोग, कागविष्ट सम मानत हैं, सम्यगद्रष्टि लोग इन्दोर के कांच मंदिर में लिखा है.