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यही तो गुरुदेव का नाद है, गूंजता इन कानों में, जीव तेरी सारी की सारी बाह्य अवस्थायें, पर्यायें, तो तुझसे हैं भिन्न, एवं परिणम रहीं स्वयं के ही षटकारक से, तू तो पूर्ण चिदानंदी, ज्ञानस्वरूप, मोक्षस्वरूप
पर्यायें होती हैं, तेरी ही हैं. उत्पाद हो, तो व्यय ही होने के लिये, इन्हीं पर्यायों से ही तो तू घूमा सारा संसार है, और तूने भ्रम किया सुखी-दु:खी होने का तू तो हमेशा ही पूर्ण, निरपेक्ष, स्वतंत्र ध्रुव ज्ञायक है
यह पर्यायें क्रमसे ही आ, सिमट जायें तुझमें बस तू तो चैतन्य राजा, ज्ञायक, जानता ही सभी को तू तीनों लोकका नाथ, स्वयं ही सर्वज्ञ ज्ञाता द्रष्टा, जाने तू तो सबको, और परिणमे सभी स्वयं के क्रम से
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