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सजी भी तो मैं ही हूं
मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं विचार मेरे भाव मेरे, अनेकान्त में खो जायें तो फिर सम्यक एकांत को ही ढूंढ निकालती हूं मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं
अनादि की मान्यता यही कहने लगती है मुझे कि यह घड़ा है पानी का तो मिट्टी का ही मनवाती हैं मैंने मान लिया सच में ही घड़ा तो है मिट्टी का ही तो इस सत का अटूट विश्वास ही पक्का करती हूं
मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं विचार मेरे भाव मेरे, अनेकान्त में खो जायें तो फिर सम्यक एकांत को ही ढूंढ निकालती हूं मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं
विचार मेरे भाव मेरे मुझ इन्द्रियों में यदि खो जायें तो बहिर्मुख इन्द्रियों को मुझ घर ही लाती हूं मुझ घर आई इन्द्रियों में घर का ही सुख चैन घर के आनंद का ही रसपान ही तो करती हूं