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एक बार जाना, माना, पहचाना मुझ चैतन्य चिंतामणी को सारे द्रव्यों से भिन्न, असंगी, पूर्ण अकर्ता और साथ साथ में की प्रतीत, किया अनुभव कि मैं चैतन्य तो हूं ही स्वयं में, स्वयं से, परिपूर्ण, चिदानंदी, ज्ञानस्वरूप
जानना ही तो है, मानना ही तो है, मुझ अंतर में मुझ चैतन्य का, आनंद का, सुख शांति का ही अनुभव है इसमें न तो देना शरीर को कष्ट, और न ही है कोई मोह न तो बनना पंडित, और न ही कसना मन बुद्धि को
बस याद कर ले पूज्य गुरुदेव का महा रत्न दिन-रात हो जाये सफल तेरा मनुष्य जीवन, बन असंगी, अकर्ता इस संसार में कोई ताकत नहीं, कर सके वो तुझे दुखी तू तो स्वयं ही है चिदानंदी, ज्ञानस्वरुपी, मोक्षस्वरूप
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