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७. आचरण
सदाचारी सज्जनो!
जैन धर्म ने आचरण पर सब से अधिक जोर दिया है। उसके बत्तीस सूत्रों अथवा पैंतालीस आगमों में सबसे पहले आगम का नाम ही “आचारांग सूत्र'' है।
ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः॥ (ज्ञान और क्रियासे ही मोक्ष प्राप्त होता है।)
ऐसा जिसने कहा है, उसने आचरण को ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण घोषित किया है। संसारमें भी दुराचारी विद्धान् की अपेक्षा सदाचारी अविद्धान्को ही अधिक अच्छा माना जाता
दुराचार से आत्मा कलुषित होती है और सदाचार से शुद्ध । यही कारण है कि महर्षियोंने घोषित किया था :
आचारः प्रथमो धर्मः ॥
(आचरण ही पहला धर्म है।) निस्सन्देह ज्ञान की सबसे पहले आवश्यकता है; परन्तु धार्मिकता का प्रारम्भ आचरण से ही होता है। अत्याचार आत्मा का शोषक है तो सदाचार पोषक।
किसी इंग्लिश विचारक के अनुसार धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया; परन्तु यदि सदाचार गया तो सब कुछ चला गया! ऐसा समझना चाहिये। इसीसे मिलती-जुलती सूक्ति संस्कृत में भी प्रसिद्ध है :
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥ [जिसका वित्त (धन) नष्ट हो गया, उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ; परन्तु जिसका वृत्त (आचरण) नष्ट हो गया, वह तो मानो मर ही गया!]
आचरण को शुद्ध रखने के लिए बहुत कुछ त्याग करना पड़ता है- सहना पड़ता है। कष्ट बिना इष्ट नहीं मिल सकता! क्षणिक सुख देने वाली चंचल लक्ष्मी के लिए यदि आप कष्ट सहने को तैयार रहते हैं - सहते हैं तो स्थायी सुख देने वाले सदाचार के लिए- आचरण को शुद्ध बनाये रखने के लिए भी आपको कष्ट सहने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिये।
साधारण विधायक या सांसद का पद पाने के लिए भी आपको चुनाव लड़ना पड़ता है, पसीना बहना पड़ता है-धन खर्च करना पड़ता है तो क्या परमात्मपद सहज ही मिल जायगा? उसके लिए भी क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे आत्मशत्रुओं से लड़ना पड़ेगा। तपस्या करनी
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