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•परोपकार. शरीर की शोभा किससे होती है ? अलंकारों को धारण करने से या चन्दन से ? नहींनहीं:
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन दानेन पाणिर्न तु कंकणेन। विभाति कायः खलसज्जनानाम् परोपकारेण नतु चन्दनेन।
-भर्तृहरिः [कान शास्त्र सुनने से सुशोभित होते हैं, कुण्डल से नहीं। हाथ दान से सुन्दर लगते हैं, कंगन से नही। निश्चय पूर्वक सज्जनों का शरीर परोपकार से ही शोभा पाता हैं, चन्दन के लेपन से नहीं।] सच्चे परोपकारी प्रार्थना की भी प्रतीक्षा नहीं करते :
पद्माकरं दिनकरो विकसं करोति चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्। नाभ्यर्थितो जलधरोपि जलं ददाति सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः॥
-भर्तृहरिः [सूर्य बिना प्रार्थना (याचना) सुने ही कमलों के समूह को और चन्द्र कुमुदों के समूह को विकसित कर देता है तथा मेघ भी बिना माँगे जल का दान करता रहता है। इससे सिद्ध होता है कि सज्जन स्वयं ही दूसरों की भलाई में लगे रहते है]
दूसरों का उपकार करना एक सद्गुण है, परन्तु दूसरों से अपने लिए उपकार चाहना दुर्गुण है। नदी, बादल, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि की तरह महापुरुष भी कभी अपने उपकारों का बदला (प्रतिफल) नहीं चाहते।
स्थानांग सूत्र में लिखा है कि तीन व्यक्तियों के उपकारों का बदला चुकाना कठिन
हैं :
तिण्हं दुष्पडियारं समणाउसो! तं
जहा-अम्मापिउणो, भट्टिस, धम्मायरियस्स।। [हे आयुष्मन् श्रवणो! इन तीनों के उपकारों का बदला चुकाना बहुत कठिन है-माता-पिता, स्वामी और धर्माचार्य] क्योंकि :
प्रत्युपकुरुते बहवपि न भवति पूर्वोपकारिणस्तुल्यः।। [प्रत्युपकारी (उपकार का बदला चुकाने वाला) बहुत-सा उपकार करके भी पूर्वोपकारी की बराबरी नहीं कर सकता!]
सज्जनों के पास जो कुछ होता है, वह परोपकार के ही लिए होता है :पिबन्तिनयः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः।।
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