Book Title: Moksh Marg me Bis Kadam
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 146
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir •मनः संयम. मनसैव कृतं पापम् न शरीरकृतम् कृतम्। येनैवालिगुड़िता कान्ता तेनैवालिग्ड़िता सुता॥ [मन से किया पाप जोरदार पाप है। शरीर से किया पाप सावधानी रखने पर घातक नहीं है। जिस शरीर से पत्नी का आलिंगन किया, उसी से पुत्री का आलिंगन किया (दोनों में भावों के अन्तर से बहुत बडा अन्तर हो जाता है)] एक डॉक्टर भी छुरे का उपयोग करता है-चीरफाड करता है और एक डाकू भी; परन्तु भावों के अन्तर से एक गुण्यार्जन करता है और दूसरा पाप। दुष्ट भी चिन्तन करता है और शिष्ट भी; परन्तु दुष्ट का चिन्तन दूसरों को धोखा देने के लिए होता है और शिष्ट का चिन्तन दूसरों की भलाई करने के लिए। विनोबा भावे ने चालीस वर्ष तक गीता पर चिन्तन करने के बाद “अनासक्तियोग' लिखा था। अरविन्द घोष ने चालीस वर्ष तक चिन्तन के सरोवर में निरन्तर डुबकी लगाने के बाद भी यही कहा था कि अभी मेरी खोज अपूर्ण है। ___ वाचस्पति मिश्र विवाह के बाद “सांख्यकारिक'' पर संस्कृत में भाष्य लिखने बैठे तो इतने तन्मय हो गये कि पत्नी को सर्वथा भूल गये । वर्षों तक पत्नी उनकी सेवा करती रही, पर कभी मुँह नही देखा उसका। एक दिन दिये में तेल समाप्त होने पर वह बुझ गया। पत्नी ने उसमें तेल डाला और उसकी बत्ती जलाई! उसी समय मिश्रजी की नजर उसके चेहरे पर पड़ी बोले :-"श्रीमती जी! आप कौन है ? ऐसा लगता है कि आपको मैंने पहले कभी देखा है ? लेकिन कहाँ देखा था? कुछ याद नहीं आ रहा है!'' श्रीमती :- "श्रीमान् जी! पहले आप अपना ग्रन्थ पूरा कर लीजिये। बाद में आपको खुद याद आ जायेगा कि मैं कौन हूँ ? यदि नहीं याद आया तो मैं बता दूंगी।" . मिश्राजी :- “आप मेरी बहिन तो नहीं हैं-यह निश्चित है; इसलिए आप कोई और हैं। आप जैसी सुन्दर जवान महिला को मेरे इस एकान्त कक्ष में रात के समय आने का साहस कैसे हुआ ? यह समझ में नहीं आ रहा है। मेरा ग्रन्थ तो अब समाप्ति पर है । अन्तिम पृष्ठ ही लिख रहा हूँ कृपया अपना परिचय दे दीजिये जिससे मेरी उत्सुकता शान्त हो।" आग्रह देखकर पत्नी ने परिचय दिया :- "मैं आपकी पत्नी हूँ- भामिती। इतने वर्ष पहले आपने मुझसे विवाह किया था। तब से आप भाष्य की रचना कर रहे है और मैं आपकी सेवा कर रही हूँ। आपने मेरी ओर कभी नहीं देखा, किन्तु मैं आपके दर्शन बराबर करती रही हूँ।" मिश्रजी ने भावविभोर होकर पत्नी को कहा :- “महादेवी! मैंने जो कुछ लिखा है, उसके मूल में तुम्हारी तपस्या है-सेवा निःस्वार्थता है, इसलिए मैं अपने इस भाष्य का नाम भामिती टीका रख देता हूँ, जिससे मेरे नाम के साथ तुम्हारा नाम भी अमर हो जाय।" १३९ For Private And Personal Use Only

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