Book Title: Moksh Marg me Bis Kadam
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 153
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandiri - मोक्ष मार्ग में बीस कदम, नही तुम्हें कि मैं अभी-अभी नदी पर स्नान करके चला आ रहा हूँ ? छूकर मुझे अपवित्र कर दिया! अब मुझे दुबारा नहाने जाना पड़ेगा!" भंगी :- "क्या आप ही अद्वैतवाद के प्रचण्ड प्रचारक है?" शंकराचार्य :- “हाँ, हाँ, इसमें क्या सन्देह है ?'' भंगी :- "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः [ब्रह्म सत्य है। जगत मिथ्या है। जीव ब्रह्म ही है, दूसरा नही] यह घोषवाक्य आप हा का है ?'' शंकराचार्य :- “हाँ, मेरा ही तो है!'' भंगी :- "अब सोचने की बात यह है कि जो ब्रह्म आपके शरीर में है, वही ब्रह्म मेरे शरीर में भी मौजूद है। ऐसी स्थिति में एक ब्रह्म ने अपने शरीर से यदि दूसरे ब्रह्म के शरीर को छू दिया तो इसमें अपवित्रता कहाँ से आ गई : अद्वैतवादी तो ऐसा भेदभाव मान ही नही सकता! दूसरी बात यह है कि ब्रह्म (जीव) तो सब शरीरों में पवित्र ही है और शरीर सबका अपवित्र ही है, क्योंकि उसमें मांस, हड्डियाँ, मल, मूत्र आदि अशुचि द्रव्य भरे पड़े हैं। ऐसी हालत में एक अपवित्र शरीर ने दूसो अपवित्र शरीर को छू भी लिया तो उसमें क्या अनर्थ हो गया? सोचिये।" शंकराचार्य ने बडे-बडे पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था, परन्तु उस भंगी की बात का उन्हें कोई उत्तर ही नहीं सूझ रहा था। उन्होंने उसे प्रणाम करते हुए कहा :-. “आज आपने मेरी आँखे खोल दी। सिद्धान्त केवल शास्त्रार्थ के लिए नही, जीवन में उतारने के लिए होते है। यह बात आपने मुझे सिखाई इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। अब मैं दुबाग नहाने न जा कर अपने आश्रम को ही जा रहा हूँ।" शंकराचार्य का यह साहस उन्हें और अधिक प्रशंसनीय महापुरुष बना देता है कि स्वयं दिग्विजयी शास्त्रार्थ महारथी महापण्डित संन्यासी होते हुए भी एक भंगीभाई के मुँह निकली हुई युक्तियुक्त बात उन्होंने सहर्ष स्वीकार की! यह साहस विवेक से उत्पन्न होता है। मूटमूढबुद्धिषु विवेकिता कुतः? शिशुपालवधः [अहंकार और मोह जिनकी बुद्धि में प्रबल होता है। उनमें भला विवेक कहाँ से होगा?] जिसमें विवेक नही होता, वह आँख रहते भी अन्धा ही होता है : विवेकान्यो हि जात्यन्धः।। [विवेक रहित अन्धा, जन्माध होता है] __ अन्य गुणों के बीच विवेक किस प्रकार सुशोभित होता है ? सो चाणक्य के शब्दों मे सुनिये: १४६ For Private And Personal Use Only

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