Book Title: Moksh Marg me Bis Kadam
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 78
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir •उदारता. हम कई दिनों से भूखे हैं। एक दिन और रह लेंगे तो कौनसा भारी पहाड़ टूट पडेगा? दरिद्रतारूपी आग को बुझाने के लिए हमारे पास सन्तोष है। वही वास्तविक धन है। तुम्हारी उदारतासे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है; फिर भी एक दुःख जरूर है : दारिद्रयानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा। याचकाशा विघातान्तर्दाहः केनोपशाम्यतु? [गरीबीकी आगका दुःख तो सन्तोष-जल से शान्त हो गया है; परन्तु घर आये याचकों की आशा टूटने का जो दुःख मनमें होगा, वह किससे शान्त किया जायेगा ? (यह मुझें कुछ समझ में नहीं आ रहा है।] अगले दिन महाराज भोज उस बगीचे में आये। शिशुपालवधम् शीर्षक एक महाकाव्य रचा जा रहा था। उसके कुछ अध्याय महाकविने सुनाये। महाराज भोज ने अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट की। महाकवि के लिए उसी बगीचेमें एक सुन्दर भवन बना दिया और उनसे निवेदन किया कि आप इसमें बैठकर निश्चिन्ता पूर्वक अपनी रचना पूर्ण करें। यह एक ही पुस्तक आपकी प्रशंसा को दिग्दिगन्त में फैला देगी। आपका यश अमर हो जायगा। संस्कृत कवियों के ह्रदय में आपका स्थान सदा ऊँचा बना रहेगा। महाराज प्रणाम करके राजमहल में लौट गये। कुछ दिनों बाद माघ ने पत्नी से कहा : "क्षुत्क्षामः पथिको मदीयभवनं पृच्छन् कुतोऽप्यागतः तत्किं गेहिनि! किञ्चिदस्ति यदयं भुङ्क्ते बुभुक्षातुरः?" (भूख से दुबला-पतला कोई पथिक कहीं से मेरे भवनको पूछता-पूछता चला आया है। हे गृहिणि! क्या घरमें कुछ खाने की चीज है, जिसे भूख से पीड़ित यह व्यक्ति खा सके ?) इस प्रश्न के उत्तर में : ___ वाचास्तीत्यभिधाय नास्तिच पुनः प्रोक्तं विनैवाक्षरैः। स्थूल स्थूल विलोल लोचनभवैर्बाष्पाम्भसां बिन्दुभिः।। (वाणी से “है" ऐसा कहकर “नहीं है'' ऐसा बिना ही बोले लम्बी-लम्बी चंचल आँखों से निकले आँसुओंकी टपकाई गई बूंदोंसे कह दिया!) क्योंकि उदारतावश “नहीं है" ऐसा कभी उनके मुँह से कहा ही नहीं गया था। पत्नी की उस चेष्टा को देखकर कविने कहा :-- अर्था न सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा त्यागान्न संकुचति दुर्ललितं मनो मे! याच्या च लाघवकरी स्ववधेच पापम् प्राणाः! स्वयं व्रजत किं नु विलम्बितेन? For Private And Personal Use Only

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