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■ मोक्ष मार्ग में बीस कदम
(मेघ के जल से यदि राजमार्ग रपटीला हो जाय तो विद्वान् भी कभी-कभी वह मार्ग छोड़कर
चलते हैं ।)
त्याग भी एक कर्त्तव्य है; परन्तु कैसी कौनसी चीज का त्याग किया जाना चाहिये ? यह जानने के लिए " चाणक्य नीति" का यह श्लोक देखिये :त्यजे दयाहीनम् विद्याहीनं गुरुं त्यजेत् ।
त्यजेत्क्रोधमुखी भार्याम् निःस्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत् ॥
(दयारहित धर्म का, विद्यारहित गुरु का, क्रोधमुखी पत्नी का और प्रेमरहित बन्धुओं का त्याग कर देना चाहिये ।)
धर्म का पालन कर्त्तव्य है; परन्तु जिस धर्म में क्रूरता के विधान हों- यज्ञों में पशुबलि की अनिवार्यता हो अथवा देवी के मन्दिर में बकरे या भैंस का बलिदान करना पड़ता हो, ऐसे धर्म का त्याग करना ही कर्त्तव्य होगा ।
गुरूदेव की सेवा करना कर्त्तव्य है; परन्तु जो गुरु विद्वान न हो- हमारे प्रश्नों का उत्तर न दे सकता हो - जिज्ञासाओं का समाधान करने में सर्वथा असमर्थ हो, उस गुरु का त्याग ही कर्त्तव्य हो जायगा ।
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पत्नी का पालन करना कर्त्तव्य है; किन्तु जो पत्नी चिड़चिड़ी हो दिनभर मुँह फुलाये बैठी रहती हो जरा-जरासी बातपर झगड़ने बैठ जाती हो; उसका त्याग कर देना कर्त्तव्य हो जायगा ।
इसी प्रकार जिन कुटुम्बियों में हमारे प्रति स्नेह न हो, उनका भी त्याग करने की सलाह दी गई है।
आव नहीं आदर नहीं नहीं नयन में नेह ।
'तुलसी' तहाँ न जाइये, कंचन बरसे मेह ।।
"नीतिवाक्यामृत" नामक ग्रन्थ में निर्दिष्ट कुछ कर्त्तव्य इस प्रकार हैं :
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त्रीण्यवश्यं भर्त्तव्यानि माता
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कलत्रमप्राप्तव्यवहाराणि चापत्यानि ।।
(माता, पत्नी और जब तक कमाने-खाने योग्य न हो जाय, तब तक सन्तान इन तीनों का भरणपोषण अवश्य करना चाहिये ।)
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आयानुरूप व्ययः कार्यः ।
( आमदनी के अनुसार ही खर्च करना चाहिये ।)
हिन्दी में भी एक कहावत प्रसिद्ध है :
"ते ते पाँव पसारिये जेती लम्बी सौर ।।"
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