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.उदारता. थी। धीरे-धीरे कविने उसके हाथ से सोने का कंगन निकाला और बाहर खड़े याचक को दे दिया।
___कंगन निकालते समय ही पत्नी की नींद खुल गई थी; फिर भी वह आँखें बन्द किये लेटी रही- यह देखने के लिए कि कवि कंगन का क्या करते हैं ? बाहर जाकर कविने जब याचक को कंगन देते हुए कहा :- “जाओ। इस कंगन से अपनी कन्या का विवाह कर दो!" तब सब कुछ समझकर लक्ष्मी देवी तत्काल बाहर आकर लौटनेवाले याचक से बोली :- "ठहरो! यह एक कंगन और ले जाओ। एक कंगन से भला शादी कैसे होगी?'
यह कहते हुए उसने अपने दूसरे हाथ से दूसरा कंगन निकालकर उसे सहर्ष दे दिया।
याचक दोनों को प्रणाम करके बिदा हुआ; परन्तु बहुत कुछ सोचनेपर भी उसकी समझ में यह नहीं आ सका कि उदारता में किसे आगें माना जाय- पतिको या पत्नी को!
उन दिनों एक बार घोर अकाल पड़ा। अकाल को दुर्भिक्ष भी कहते हैं :- “दुःखेन भिक्षा लभ्यते यस्मिन् काले स दुर्भिक्षः" (बहुत कठिनाईसे जिसमें भिक्षा प्राप्त हो, उस काल को दुर्भिक्ष कहते हैं।) उस दुर्भिक्ष से व्यथित महाकवि माघने अपनी पत्नी से कहा :
न भिक्षा दुर्भिक्षे पतति दुरवस्थाः कथमृणम् लभन्ते कर्माणि द्विजपरिवृढान्कारयतिकः? अदत्त्वैव ग्रास ग्रहपतिरसावस्तमयते
क्व यामः? किं कुर्मो? गृहिणि! गहनो जीवनविधिः [इस दुर्भिक्षकाल में भिक्षा नहीं मिलती। हम जैसे निर्धनों को कर्ज कैसे मिल सकता है ? (नहीं मिलता; अन्यथा उसीसे कुछ दिन काम चला लिया जाता) हमारे जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण को कोई काम पर भी नहीं रखता (अन्यथा नौकरी करके ही गुजारा कर लेते) यह सूर्य हमें ग्रास दिये बिना ही अस्ताचल की ओर चला जा रहा है (दिन-भर से हम दोनों भूखे बैठे हैं।) कहाँ जायें? क्या करें ? हे पत्नी! जीवित रहने की विधि बड़ी गम्भीर है।]
यह सुनकर पत्नीने सुझाव दिया कि हम यह स्थान छोड़ कर कुछ वर्षों के लिए धारा नगरी में चलें । वहाँ राजा भोज बड़े उदार हैं और वे कवियोंका बहुत सम्मान करते हैं। वहाँ दुर्भिक्ष के ये दिन बड़े आराम से गुजर जायेंगे।
सुझाव मान लिया गया। दोनों धारा नगरी जा पहुँचे। नगर के बाहर एक बगीचे में दोनों ठहरे। दूसरे दिन कविने अपनी पत्नी के साथ एक श्लोक महाराज भोज के पास भेजा। महाराज ने उसे पढ़ा :
कुमुदवनमपनि श्रीमदम्भोजखण्डम् त्यजति मुदमुलूकःप्रीतिमांश्चक्रवाकः। उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तम् हतविधिलसिताना ही विचित्रो वपाकः॥
-शिशुपालवधम्
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