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८. ईर्ष्या
स्पर्धालु सज्जनो!
ईष्या और स्पर्धाका रूप मिलता-जुलता है; परन्तु उनमें उतना ही अन्तर है, जितना नमक और शक्कर में!
दूसरों को सुखी देखकर जलना ईर्ष्या है; परन्तु स्पर्धा में ऐसी जलन नहीं होती। स्पर्द्धालु दूसरों के समान बनने का प्रयास करता है। यह अच्छा गुण है। अपनाने योग्य है।
जिस प्रकार क्रोध से क्रोधीका भी खून जलता है, उसी प्रकार ईर्ष्या से ईर्ष्यालु का खून जलता है, उसका मन दुःखी रहता है। अपने दुःखोको मिटाने के लिए वह सुखियों को कष्ट पहुँचाने का प्रयास करता है। इस प्रकार स्वयं भी दुःख पाता है और दूसरोंको भी दुःख देता है। यह एक दुर्गुण है, जो छोड़ने योग्य है। हेतावीर्युः फले नेयुः॥
-चरकसंहिता [हेतु में ईर्ष्या करनी चाहिये (इसी को स्पर्धा कहा जाता है।), फल में नहीं।]
किसी को यदि सुख सामग्री प्राप्त हुई है तो हमें उसके हेतुओं पर विचार करना चाहिये कि उसने कितनी बुद्धिमत्ता और परिश्रम के द्वारा वह सामग्री अर्जित की थी। उसके समान सुख-सामग्री अर्जित करने के लिए हमें भी उतनी बुद्धिमत्ता और परिश्रम से काम लेना चाहिये। इतना ही नहीं, बल्कि उसके कुछ अधिक सुखसामग्री प्राप्त करनेका भी प्रयास किया जा सकता
दूसरों के धन पर ललचाने वाला उसे छीनने की कोशिश कर सकता है-- इस प्रकार ईर्ष्या उसे इन्सान से शैतान बना सकती है, बना देती है।
___लोगों में ईर्ष्या के भाव पैदा न हों- इसके लिए विचारकों ने सलाह दी है-- सादा जीवन बिताने की। महर्षि ताओ (चीन के महात्मा) कहते है :
"लोगों के बीच अपना बडप्पन दिखाना छोड़ दो; ईर्ष्या रुक जायगी।"
लोग यदि समृद्धि देखकर जलते हैं- बहुमूल्य आभूषण देखकर जलते हैं- भड़कीली पोशाक देखकर जलते हैं तो आप इनका त्याग कर दीजिये। “सादा जीवन उच्च विचार" का आदर्श अपनाइये, जिससे वे ईर्ष्या की आग में न जलें।
___ यह तो हुई दूसरों की बात; परन्तु अपने आपको ईर्ष्या की आग से बचाना तो आपके ही हाथ की बात है। किसी भी स्थिति में आप अपने भीतर ईर्ष्या पैदा मत होने दीजिये। वह पैदा हो गई तो आपका विवेक नष्ट हो जायगा :
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