Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir
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३४
मणिपति चरित्रे
इय भणिय गओ सहसा देवो' राया य सभवणंमि । संपत्तो पत्तवरो एवं वच्चंति दीहाई ॥ ८३ ॥ कइयावि मंडणत्थं आसीणो नरवई सुणइ वयणं । घरकोलियानरायं एयं निययपई पइ भणिज्जंती ॥ ८४ ॥
जइ एयाओ नरवरविलेपणाओ तुमं महनिमित्तं । 'आणेहि थोवमेत्तं विलवणं डोहलो मज्झ' ॥ ८५ ॥ 'सो भणइ न आणेमी बीहेमि निवस्स' सा तओ भणइ । 'जइ आणेसि न एयं तो अवस्सं मरिस्सामि ॥ ८६ ॥ तव्वयणसवणसंजायहरिसो पहसिरो निवो दिट्ठो । देवीए तओ पुट्ठो 'सामिय किं हससि तं एवं ?' ॥ ८७ ॥
इति भणित्वा गतः सहसा देवा राजा च स्वभवने । संप्राप्तः प्राप्तवर एवं व्रजन्ति दिवसानि ॥ ८३ ॥ कदापि मण्डनार्थं आसीनोः नरपतिः शृणोति वचनम् । गृहकोकिलाया एतद् निजकपतिं प्रतिभण्यमानम् ॥ ८४ ॥ यथा एतस्मात् नरवरविलेपनातस्त्वं मम निमित्तम् । आनय स्तोकमात्रं विलेपनं दोहदो मम ॥ ८५ ॥ सो भणति नानयामि बिभेमि नृपस्य सा ततो भणति । यद्यानयसि न एतमवश्यं ततो मरिस्यामि ॥ ८६ ॥ तद्वचनश्रवणसंजातप्रहर्षः प्रहसन् नृपो दृष्टः । देव्या ततः पृष्टः स्वामिन् ! किं हससि त्वमेवम् ॥ ८७ ॥

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