Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir
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मणिपति चरित्रे
आम भणंति नवरं मुणिचंदनरिंदपुत्तगो एगो। पुरोहियपुत्तोवि हु कुणंति साहूण उवसग्गं ।। १६ ॥ इय वयणं सोऊणं सागरचंदो वि पुच्छिउं सूरिं । उज्जेणीए पत्तो तेर्सि पडिबोहणट्ठाए ॥ १७ ॥ एगाए वसहीए ठिओ सुसाहूण मज्झयारम्मि । भोयणकाले पत्ते पतं चित्तूण भिक्खट्ठा ॥ १८ ॥ स पट्ठिओ मुणीहिं निवारिओ अज्ज हो ! सुपाहुणगो । न य चिट्ठइ सो भणइय अत्तलद्धिओ मज्झ दंसेह ॥ १९ ॥ पडणीयो वणमामागनिंदियसिज्जायराइं भवणाइं। साहूहिं तहा विहिएं सो उ गओ रायभुवणम्मि ।। २० ॥
ओम् भणन्ति नवरं मुनिचन्द्रनरेन्द्रपुत्रक एकः । पुरोहितपुत्रोऽपि तु कुर्वन्ति साधूनामुपसर्गम् ॥ १६ ॥ इति वचनं श्रुत्वा सागरचन्द्रोऽपि पृष्ट्वा सूरिम् । उज्जयिन्यां प्राप्तस्तेषां प्रतिबोधनार्थाय ॥ १७ ॥ एकस्यां वसत्यां स्थितस्सुसाधूनां मध्यान्तरे । भोजनकाले प्राप्ते पात्रं गृहीत्वा भिक्षार्थम् ॥ १८ ॥ स प्रस्थितो मुनिभिः निवारितोऽद्य भो ! सुप्राधूर्णकः । न च तिष्ठति, स भणति च, आत्मलब्धिको मां दशर्यताम् ॥ १९ ॥ प्रत्यनीको वन-मामक-निन्दितशय्यातराणि भवनानि । साधुभिस्तथा विहिते स तु गतो राजभवने ॥ २० ॥

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