Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir

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Page 125
________________ १०६ मणिपति चरित्रे किर कोइ वड्डई दारुयाए कद्वेण वणगओ सिहं । दटुं भीओ चडिओ दुमसिहरे वानरं नियइ ॥ २ ॥ भीओ तओऽवि तीए मा बीहसु एरिसं भणंतीए । आसासिओ चिरेणं नीसाए निदाइउं लग्गो ॥ ३ ॥ तो वानरीए नियए अंके ठविऊण कारिओ निदं । मग्गंतस्सवि सिंहस्स बहुविहं छल्लिओ नेय ॥ ४ ॥ सो उट्ठिओ पसुत्ता पुवुत्ता वानरिं तदुच्छंगे। सींहेण मग्गिआ छड्डिया य तेणं न उण पडिआ ॥ ५ ॥ दक्खत्तेणेण तरुवरसाहाई विलग्गिऊण सा वक्का । भणइ 'धिरत्थु नराहम ! तुह एरिसं आचरन्तस्स' ॥ ६ ॥ किल कश्चित् वर्धकी दारवे कष्टेन वनगतः सिहम् । दृष्टवा भीत आरुढो द्रुमशिखरे वानरी पश्यति ॥ २ ॥ भीतस्ततोऽपि तया मा बीभीहि एतादृशं भणन्त्या । आश्वासितश्चिरेण निशायां निद्रितुं लग्नः ॥ ३ ॥ ततो वार्नया निजे अङ्के स्थापयित्वा कारितो निद्राम् । मार्गयतोऽपि सिंहस्य बहुविधं छलितो नेति ।। ४ ॥ स उत्थितः प्रसुप्ता पूर्वोक्ता वानरी तदुत्संगे। सिंहेन मार्गिता मुक्ता च तेन न पुनः पतिता ॥ ५ ॥ दक्षत्वेन तरुवरशाखायां विलग्य सा वक्रा । भणति धिगस्तु नराधम ! तवेतादृशमाचरतः ॥ ६ ॥

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