Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir
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मणिपति चरित्रे वर्धकिकथा
पच्छा सुगुरुसमीवे पव्वइओ पालिऊण सामण्णं । कयपाणपरिच्चाओ उववन्नो देवलोगंमि ॥ १९ ॥ ता भो कुंचियसावय ! परिभावसु हिययमज्झयारंमि । जया सावयाऽपि एयं निर्लोभा हुंति दढधम्मा ॥ २० ॥ ता किं मुणिणो परसंतियंमि दव्वंमि हुन्ति लोहिल्ला। तो कुंचिएण भणियं, अन्ने ते तारिसो न तुमं ॥ २१ ॥ इय मुणिवइमुणीचरिए सुसाहुगुणरयणसायरसरिच्छे । मुणिवइकहिया दसमी सुहावहानागदत्तकहा ॥ २२ ॥
वड्डइ कहा पुण भणइ कुंचिओ 'वणयरस्स तं संनिहो न संदेहो' । तो मुणिवइणा भणियं 'कहसु कहं ?' कुंचिओ भणइ ॥ १ ॥ पश्चात् सुगुरुसमीपे प्रव्रजितः पालयित्वा श्रामण्यम् । कृतप्राणपरित्याग उत्पन्नो देवलोके ॥ १९ ॥ ततो भो ! कुञ्चिकश्रावक ! परिभावय हृदयमध्ये । यदा श्रावकाऽपि एवं निर्लोभा भवन्ति द्रढधर्माः ॥ २० ॥ ततः किं मुनयः परसत्के द्रव्ये भवन्ति लोभिनः । ततः कुञ्चिकेन भणितमन्ये ते तादृशा न त्वम् ।। २१ ॥ इति मुनिपतिमुनिचरित्रे सुसाधुगुणरत्नसागरसदृशे । मणिपतिकथिता दसमी सुखावहा नागदत्तमुनिकथा ॥ २२ ॥
वर्धकि कथा पुनः भणति कुञ्चिको वनचरस्य त्वं सन्निभो न संदेहः । ततो मुनिपतिना भणितं कथय कथं ? कुञ्चिको भणति ॥ १ ॥

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