Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir

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Page 105
________________ मणिपति चरित्रे ८६ से णिपुत्तस्स आहिहाओ परिणेउ रायवरकन्नं । इय सव्वंमि वि विहिए तो परिणइ रायवरकन्नं ॥ ५६ ॥ तयणंतरं च ताओ कन्नाओ अट्ठपुव्ववरियाओ । इत्थंतरम्मि पुणरवि सुरो भणइ 'हो सुप्पव्वइओ' ॥ ५७ ॥ सो भइ 'वरिसबारस खमेसु ताव य वसामि गिहवासे । ' ' एवं होउ' त्ति सुरो गओ तओ देवलोम्मि ॥ ५८ ॥ पुन्ने उ अवहिकाले समागओ भणइ 'गिण्ह तो दिक्खं ।' महिलाविन्नतसुरो पुण गच्छइ तितियं कालं ॥ ५९॥ ता पव्वज्जं गिण्हइं अहिगयसुतोवि सुद्धसम्मत्तो । गीयत्थो पडिवज्जइ एगल्लविहारवरपडिमं ॥ ६० ॥ तस्य निजपुत्रस्याभिस्नातः परिणयतु राजवरकन्याम् । इति सर्वस्मिन्नपि विहिते ततः परिणयति राजकन्याम् || ५६ ॥ तदनंतरं च ताः कन्या अष्टपूर्ववरिता । अत्रान्तरे पुनरपि सुरो भणति भो ! सुप्रव्रजितः ॥ ५७ ॥ स भणति द्वादशवर्षः क्षमस्व तावच्च वसामि गृहवासे । " एवं भवत्विति" सुरो गतस्ततो देवलोके ॥ ५८ ॥ पूर्णे त्ववधिकालस्समागतो भणति गृहाण ततो दीक्षाम् । महिलाविज्ञप्तसुरः पुनर्गच्छति तावत् कालम् ॥ ५९ ॥ तदा प्रवज्यां गृह्णात्यधिगतस्सूत्रोऽपि शुद्धसम्यक्त्वः । गीतार्थः प्रतिपद्यते एकाकीविहारवरप्रतिमाम् ॥ ६० ॥

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