Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir
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मणिपति चरित्रे
सिट्ठीण कन्नगाओ कह वीवाहेसि मज्झ तणओ वि। घित्तूण करे क्खिता खुड्डाए भणइ वुणवेज्जं ॥ ४६ ॥ पाणं च मुहे खिप्पइ तो सुररुवेण भणइ गिन्ह वयं । सो पभणइ 'कोसि तुमं?' इयरो पुण भणइ 'देवोऽहं ॥ ४७ ॥ दियलोया हं एत्थं समागओ तुज्झ बोहणनिमित्तं' । इयरो जाइसरिऊ भणइ “विगुतोम्हि किं करिमो?' ॥ ४८ ॥ भणइ सुरो 'निवकन्नं तुज्झ दयावेमि जेण अकलंको । होसि तुमं जणमज्झे इयरो जंपइ ‘इमं कुणसु' ॥ ४९ ॥ तो कुणइ छगं रयणे वोसिरइ सुरो वि मेयरुवेणं । घित्तूण ताणि सेणियरन्नो दाऊण इमं भणइ ।। ५० ॥
श्रेष्ठीनां कन्यकाः कथं विवाहयसि मम तनयोऽपि । गृहीत्वा करे क्षिप्तः क्षुद्रां भणति बालवेद्यम् ॥ ४६ ॥ पानञ्च मुखे क्षिपति ततस्सुररुपेण भणति गृहाण चायम् । स प्रभणति कोऽसि त्वमितरः पुनः भणति देवोऽहम् ॥ ४७ ॥ देवलोकादहमत्र समागतस्तव बोधननिमित्तम् । इतरो जातिस्मृत्वा भणति विगुप्तोऽस्मि किं कुर्मः ॥ ४८ ।। भणति सुरो नृपकन्यां तव दापयामि येनाकलङ्कः । भवसि त्वञ्जनमध्य इतरो जल्पतीदं कुरु ॥ ४९ ॥ ततः करोति छागं रत्नानि व्युत्सृजति सुरोऽपि मेदरुपेण । गृहीत्वा तानि श्रेणिकराज्ञे दत्वेदं भणति ॥ ५० ॥

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