Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir

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Page 77
________________ ५८ मणिपति चरित्रे ता तह उरु एसो पुरषाहि ठिओत्ति रक्खिओ न मए । तहवि तुमं मा रोय सुकरेमि अचिरेण तुह एवं' ॥ २५ ॥ इय भणिऊणं तीए अचिंतणिज्जाए देवसत्तीए । ऊरु तयवत्थोच्चिय मज्झ कओ कयपसायाए ॥ २६ ॥ तं पणमिऊणं अह यं गओ अहं ससुरमंदिरं तं च । पिहिय-दुवारं दटुं विवरेण ता पलोएमि ॥ २७ ॥ पिच्छामि महिलियं सासुयं च तहियं पइवकंतीए । मंसं खायंतीओ दो वि पियंतीओ मज्जं च ॥ २८ ॥ इत्थंतरंमि मह सासुयाइ वुत्तं जहा इमं मंसं । अइमिटुं तो पभणइ मह भज्जा एरिसं वयणं ॥ २९ ॥ तस्मात् तत्र उरु एषः पुरबहिस्स्थित इति रक्षितो न मया । तथापि त्वं मा रुदिहि सुष्ठ करोम्यचिरेण तवैताम् ॥ २५ ॥ इति भणित्वा तया अचिन्त्याया देवशक्त्या । उरु तदवस्थैव मम कृतः कृतप्रसादया ॥ २६ ॥ तां प्रणम्य अथ यद् गतोहं श्वश्रुरमन्दिरं तच्च । पिहितद्वारं दृष्ट्वा विवरेण तावत् प्रलोकयामि ॥ २७ ॥ पश्यामि. महिलां श्वश्रू च तत्र प्रदीपकान्त्या । मांसं खादन्त्यौ द्वेऽपि पिबन्त्यौ मद्यञ्च ॥ २८ ॥ अत्रान्तरे मम श्वश्वुक्तं यथेमं मांसम् । अतिमिष्टं ततः प्रभणति मम भार्या ईदृशं वचनम् ॥ २९ ॥ १. एयं = जंघा । २. तयवत्थ = तदवस्थ । ३. पइवकंतीए = प्रदीपकान्त्या ।

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