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(१३) करते हरखाई ॥ टेक ॥ वस्तु सका न जा. नत ठानत पक्षपात धरि करत लड़ाई ॥१॥ देव धर्म गुरु रूप गहन नहिं चित अभिमान धरत अधिकाई । भूले है कुगुरुनि प्रसंग करि करण विपय विपखात अघाई ॥२॥ पुण्य कर्म शिवमारग ठानत शुद्ध रूप करतूति न पाई। साधर्मिन के छिद्र लखत चित द्वेष धरत मुख करत बड़ाई॥३॥ भर्म भाव में भर्मत डोलत कर्म कलोलनि में भटकाई । अहंकार ममकार करत चित धरत कपाय भाव कलुपाई ॥॥ स्वपर जोव को दया न जानत अघकारण ठानत चितलाई। मानिक ऐसे जीवन को नित संग तजी जिनराज धुआई ॥५॥
१३ पद-गग सौरठ ॥ . अब हम सुनें सुगुरु के वना-जासों खुले