________________
पट-गजान॥ छवि वीतराग की मेरे उर में समा रही। दृग बोध वीर्य शमं मई दृग में छारही ॥ टेक ॥ नासाग्र दृष्टि धरें करें वर विरागता । सुख बारिध विस्तारवे को चन्द्र है यहो ॥छवि०१॥ वर गुढ नुामन घरं अभी सुरंग रंगी । शिव पंथ के लखाव ने को दीपिका यही ॥ छवि०२॥ जाके स्त्रगुण पर्यय यामें समा रहे । निज आतम दर्शाने को आरसी यही ॥ छवि। छवि देखि दर्प कोटिहू कंदर्प को गया । मिथ्यात्न तम नमानने को मित्र है यही ॥ वि०४॥ नागेन्द्रसुर नरेन्द्रफुनि गणेन्द्र भी ध्यादें । विज्ञान बीनागना का हेतु है यही ॥ छवि०५॥ यह मानिक उर नाहीं निश्चे हुआ है आज । भव सिंधु ने तरन की जलयान है यही ॥ छवि० ६ ॥