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(४८) अव मानिक नातर होयगी स्वारी। सर्व विकलप तजि थिर चित करि भजि सिद्ध अकल अविकारी ॥ जीव० ॥
५० पद-राग जोगिया ॥ जीव लखि यह संसार असारा जामें सुख नाहिं लगारा ॥ टेक ॥ द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव रूप पंच पर कारा । तामहिं भ्रमत अनादि काल ते मिथ्या भाव पसारा ॥ जीव० १॥ महा कठिन करि बड़े भाग्यतें आयो जगत किनारा। चके तो फिर नाहिं ठिकाना विषम चतुर्गति धारा ॥ जीव० २॥ देव धर्म गुरु रूप परखि निज मोह भाव निरबारा। रत्नत्रय नौका चढ़ि मानिक क्यों न होहु भब पारा ॥ जीव०३।
५१ पद--राग भैं । भवि जन सब विकलप तजि निशदिन