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( ५२ ) करनी सकल गमाई ॥ ४ ॥ देव धर्म गुरु ग्रंथ परखि पुनि तजि प्रमाद दुखदाई । जिन वृष शुद्ध भजो अब मानिक फेरि न भव भटकाई ॥ ५ ॥
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५४ पद - राग भैरों तथा फोंटी !! शिव सरूप परमातम जे भवि गुण पयय युत घ्यावें । तिनकी कर्म कालिमा विनसे परब्रह्म हो जावें ॥ टेक ॥ रहित सप्त भय तत्त्वारथ में नेक न संशय लावें । सम्यग्ज्ञान प्रधान भान बल भ्रम तम घान नसावें ॥ शिव०९॥ स्वपर भेद विज्ञान करत वा निज में निज विरमांवें । सुख दुख में न विषाद हरष चित नित वैराग्य बढ़ावें ॥ शिव० २॥ संवर निर्जर हित स्वरूप श्रीगुरु उर ध्यान लगायें। मोह छोह बिन शाम्य भांव चित धर्म उपादेय भावें ॥ शिव० ३ ॥ आश्रव बंध बि