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अप्रमाद-सूत्र : 1 सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिए आसुपन्ने। घोरा मुहुत्ता अवलं शरीरं, भारंडपक्खी व चरऽप्पमत्ते।।
आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्रा में सोये हुए संसारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए। काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल, यह जानकर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।
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