Book Title: Mahavir Chariyam
Author(s): Nayvardhanvijay
Publisher: Ahmedabad Paldi Merchant Society Jain Sangh
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पश्चमेऽणुव्रते वासवदत्तकथा.
श्रीगुणचंद 8
सो दविणाइनिमित्तं वचंतो दूरदेसनयरेसु । पविसंतोऽवि समुद्दे कुणमाणो विविहयवसायं ॥ ७॥ महावीरच. लाभेऽविहु पइदिणवढमाणधणवद्धणाभिलासो न । अचंतमहादुक्खं वासवदत्तोच पावेइ ॥ ८॥ विसेसयं तीहिं। ८प्रस्ताव: अह गोयमेण भणियं वासवदत्तो जिणिंद ! को एस। जयगुरुणा संलतं सीसय ! सम्म निसामेसु ॥ ९॥ ॥ ३१२॥
कणयखलंमि महानयरे सुवलयचंदो नाम सेट्ठी, तस्स धणा नाम गिहिणी, तेसिं अचंतवलभो सबकलाकलावल निउणो वासवदत्तो नाम पुत्तो, सो य महारंभो महापरिग्गहो गरुयलाभसंभवेऽवि महालोभसंगओ, अहोनिसं दबोवजणोवाए पयर्टतो कालं वोलेइ, तस्स य अम्मापिउणो अचंतसावगधम्मकरणसीलाणि जिणवयणायनणेण मुणियअविरइकडविवागाणि तं नियपुत्तं अणवरयाणेगपावडाणपसत्तं पलोइऊणं भणति-वच्छ! सुमिणोवमं जीवियं असारा विसया सकजाणुवत्तणमेत्ता सयणसंजोगा खणविपरिणामधम्मा रिद्धिसमुदया, अओ किंनिमित्तं न कुणसि धणधन्नखित्तवत्थुहिरन्नसुवन्नदुपयचउप्पयाइसु इच्छापरिमाणं, न वा परलोयसुहावहं समजिणेसि धम्म, तहा |वच्छ ! पिउपियामहपुरिसपरंपरागयं न माइ दवं, अओ निरत्थओ तदजणगाढपरिस्समो, अह अपुर्व लछि उववजिउमिच्छसि तहावि जहासत्तीए इच्छापरिणाममेव कल्लाणकारगमिचाइ बहुप्पयारवयणेहिं पन्नविजमाणोऽवि न पडिवजइ कम्मभारियतणेण एसो मणागपि तवयणं, सच्छंदचारित्ति उवेहिओ अम्मापिऊहिं । अन्नया य देसंतरागयवणिया पुच्छिया वासवदत्तेण-अहो कि तुम्ह देसे भंडमग्घइ, तेहिं कहियं-अमुगंति, तओ तयणनिसाम
OGORAGOCHARGA
AAAAAAACANA
॥३१२॥
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