Book Title: Mahavir Chariyam
Author(s): Nayvardhanvijay
Publisher: Ahmedabad Paldi Merchant Society Jain Sangh
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हंत ! जइ तेऽवि वंचंति कहवि ता किं न चंदबिंबाओ । अमयमयाओ निवडइ पलित्तगयणानलकणोली ? ॥७॥ किं वा न सूरर्वित्रे विष्फुरमाणेऽवि तिमिरसंभारो । भरियभुवणंतरालो वियरइ स्यणिं अकालेऽवि ? ॥ ८ ॥ ता भद्द ! नेव जुज्जर गुरुहुत्तं तुज्झ जंपिउं एवं । अञ्चतपावजणगत्तणेण मज्झंपि नो सोउं ॥ ९ ॥ जं च तए भणियमिमं वयलोवसमुत्थपावसमणत्थं । पायच्छित्तं पच्छा सेविजाहित्ति तमजुत्तं ॥ १० ॥ जं पढमंपि न जुज्जइ तं काउं जत्थ होइ वयलोवो । लुत्ते य तत्थ विहलो पायच्छित्ताइवावारो ॥ ११ ॥ सहसकाराणाभोगओव वयमयलणंमि पच्छित्तं । पढमं चिय जाणंतो जो लोवइ तस्स तं विहलं ॥ १२ ॥ इ भणिए सो देवो रंजियचित्तो विसिटुरूवधरो । चलियमणिकुंडलामलमऊह विच्छुरियगंडयलो ॥ १३ ॥ ससिहं जोडियपाणिपुडो भणिउमेवमादत्तो । धन्नो सि तुमं सावय ! वयंमि जो निचलो एवं ॥ १४ ॥ देवोऽहं तुह सत्तं परिक्खिउं संपयं समणुपत्तो । परितुट्ठो य इयाणिं ता भण किं ते पयच्छामि ? ॥ १५ ॥ जिणपारिएण भणियं जिणमुणिपयपूयणाणुभावेण । सवंचिय परिपुन्नं न मग्गियवं किमवि अत्थि १ ॥ १६ ॥ ता सुरेण कहियं जस्सेरिस निञ्चलत्तणं धम्मे । सो तं कयकिचो नणु तहावि ममणुग्गहट्ठाए ॥ १७ ॥ विसदोसहरणदक्खं रयणमिमं गिण्ह तं महासत्त । । एवं तमप्पिऊणं देवो अहंसणं पत्तो ॥ १८ ॥ जिणपालिओवि गहिऊण तं गहिऊण घयाइभंडं च । इयरवणियाण दाऊण गओ सनयरं, तत्थ य जाव
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