Book Title: Mahapurana Part 2 Author(s): Pushpadant, P L Vaidya Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 6
________________ २ महापुराण "साह बणाई वि दीसह मायउ बीयंकुरकोण कुलु आय भरहेगवहिं कुलु सिज्जइब्रालि कालि जिणणाहहि मिजा।" 2815. भरहेरावहिं पक्के दो अर्थ सम्भव है-भरत और ऐरावत क्षेत्रों में अपवा भरत क्षेत्रके राजाबोंके द्वारा। अन्तम मरत चक्रवर्ती कहता है : "जिह गोवउ पालह गोमंडलु तिह पासह गोवह गोमंहलु ।" 2018. जिस तरह ग्वाला गायोंके मण्डलका पालन करता है उसी तरह राजा भूमिमणलका पालन करता है। कृपणका चित्रण जिसके पास धन नहीं है, उसके पंचम कोने न दो का पाल नहीं करता... लेकिन को सम होते भी खर्च नहीं करता उसकी भरत आलोचना करता हुआ कहता है। पंजूस व्यक्ति न नहाता है, न लेपन करता है, न वस्त्र पहनता है, वह सधन-सन स्त्रियोंको भी नहीं मानता । सिरपर रखे हुए शो के डंठलोंके गुन्छोंवाले घान्यफण तथा प्रोणोमर अलसीका तेल रखता हुआ वह स्वजनों को निकाल बाहर करता है। उसके मन में निरन्तर इतना लोमधन होता है कि बड़े त्योहारके दिन भी दोनकी तरह खाता है। लोगोंका मनोरंजन करनेवाले पात्रको हाथमे लेकर नगरमें घूम-घूमकर ऋण मांगता है । एक सड़ी सुपारी इस तरह म्हाता है कि एक ही सुपारीमे पूरा दिन बीत जाये । __'णिपरया पूयफल वंति किह एककेण जि रवि अत्मद बिह' 19-1 वह बन्धेरै एकान्तमें बन टटोलता रहता है। "बंषद मेला पूर्ण पण मवह । वसु गुज्ज पवेहिं पुणु ठवह ॥ सा सढि ण पूरइ किह मरमि। मणि जूरह काई दश्य फरमि || लोहिद्छ दुल पावि पलु। पाहणयह उत्तर खस्नु । पत्ता-गहिगि गम गामहो दनिय कामहो मणु णं भल्लिा भिज्जा । मम वि दुक्खा सिंच तुहु आप घर भणु एहिं कि किज्जा ।।" धन छोड़ता है, पार-बार मापता है 1 घनको गुप्त स्थानमें फिर रखता है। यह साठकी संस्था पूरो नहीं होती किस प्रकार उसे भरा जाए ? मनमें अफसोस करता है कि हे देव, पया कह ? दुष्ट-पापो-लोभो व्यक्ति बहुत चंचल होता है। यह दुष्ट अपने अतिषिसे कहता है-"पत्नी अपने प्रिय गांवको गयो है और मेरा मन जैसे मालोंसे छिया जा रहा है, मेरा सिर भी फटा जा रहा है । तुम पर आये हुए हो ? मेरो समाम नहीं का रहा है ।" 19-3. जिनति ___ खराब सपने देखने के बाद भरत ऋषभ जिनके दर्शन करने के लिए कैलास पर्वतपर पाता है, उनको स्तुति करते हुए कहता है तुम चिन्तामणि कल्पवृक्ष हो, तुम अमृतमय सरस रसायन हो, कामधेनु और अक्षयनिधि हो, तुम पुषोत्तम और लोगोंकी परमनिधि हो; तुम सिसमन्त्र और सिद्ध पौषषि हो । इसके बाद नामका महत्व बताया गया है।Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 463