Book Title: Mahapurana Part 2 Author(s): Pushpadant, P L Vaidya Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 4
________________ १० महापुराण ब्राह्मणोंके विषय में ऋषभ जिन कहते हैं : ये लोग ( ब्राह्मण ) पशु मारकर उसका मांस खायेंगे। यश में रमण करेंगे, स्वम् क्रीड़ा करेंगे, मधुर सोमपान करेंगे । पुत्रको कामना करनेवाली परस्त्रीको ग्रहण करेंगे। दूसरों को अपनी पत्नी देंगे ? मद्यपान करते हुए भी दूषित नहीं होंगे। प्राणिवधसे भी दूषित नहीं होंगे। वे जो करेंगे उसीको धर्म कहेंगे । में शून्यागारों, वेश्याकुलों और पापोंसे अम्धे राजकुलोंके कर्मको धर्म कहेंगे ! हे पुत्र, वहाँ मैं पापका क्या fe ? वे गाय और आगको देवता कहेंगे । पुत्री और पवनको देवता कहेंगे। मासके निश्य भोजनको व्रत कहेंगे । वे दूसरे दूसरे पुराण लिखेंगे - देखोके द्वारा यह किया गया। स्वयं अपने कुलोंको चाहकर धोकरीपुत्र ( व्यास ) और गर्दनी पुत्र ( दुर्वासा ) जैसे कपट-आगमों को करने वालोंको परम ऋषित्वकी संज्ञा प्रदान की जायेगी । 19/10 ऋषभ जिन यह भी घोषित करते हैं कि कलिकालमें जैन मुनियोंको मन:पर्यय और अवधिज्ञान होगा | 19/12. और यह कि जैन मुनि भी कषाय बाँधने वाले होंगे। 19/13. भावलिंगी भरत अपने पिता तीर्थ और उपदेश सुनकर भरत अयोध्या लौटकर जिन प्रतिमाका अभिषेक करता है । उसका विश्वास है कि जनपद राजाका अनुकरण करते हैं : 'रामाणुवट्टि जगि संचरह जिइ परवह तिह जगवठ' 28 /. भरत भागी है, और भारतेश्वर होकर भी जिनवरके धर्मका बाचरण करता है। वह रोज यह अनुभूति करता है : "होउ होउ रायतें गंधे अणु दिणु य शायं कयं हजं मुणिव परिदिउ वरचें । व चह्निवि जंति रागपरमाणु ॥ 28 / 2. हो हो, राज्यस्त्र और परिग्रह। मैं मुनिवर हैं, पर वस्त्रोंसे घिरा हुआ। प्रतिदिन यह ध्यान करते हुए उसके ( भरत के ) रागपरमाणु धूलके समान जाने लगते हैं । राजनीतिशास्त्र • भरतका राजनीति विज्ञान यह है कि जिसमें शत्रु के द्वारा मन्त्रभेदन न हो, तलवारसे जिसका प्रताप दूर तक फैलता है जो प्रातः परमात्मा की उपासना कर न्यायशासन में मन लगाता है, प्रजाके वाचरणकी चिन्ता करता है। अधिकारियोंको नियोग में लाता है, विभिन्न क्रियाओंसे लोगोंका आदर करता है, शत्रुमण्डलमें घर भेजता राज्यकार्य से निवृत्त होकर घरमें स्वच्छन्द विहार करता है, भोजनके उपरान्त नृपगोष्ठी में आघात से सीसरे प्रहरका ज्ञान होनेपर, विनोदसे वेश्याओं के साथ क्रीड़ा विलास करता है । यह अच्छ वाविलासिणिहि सह फीलाई बिपो 28 3. रहता है, घड़ी कविके इस कथनमें भरतका चरित्र एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से कवि अपने समय के सामन्त राजाओं के चरित्र की गिरावटका सांकेतिक वर्णन करता है, उक कपनकी यही व्याख्या की जा सकती है। नहीं तो, जो चक्रवर्ती सबैरे यह ध्यान करे कि मैं मुनिवर है, दस्त्रोंसे लिपटा उसी दिन शामके तीसरे पहर वार विलासिनियोंके साथ कीड़ा करें, इन दो बालोंमें संगति बैठाना असम्भव है, एक समाधान यह भी दिया जा सकता है कि वस्तुतः यह वसवीं सदी के भारतीय सामन्तवादी प्रत्ता पुरुषों को यथार्थ स्थितिका अंकन है जिसमें वीर लोग कभी एक कामसे युद्धकी ललकार और दूसरे कानसे नूपुरकी शंकार सुनने के बादी 1 पुष्पदन्त के समय सबेरे परम वीतरागताकी अनुभूति और शामको वारवमिताओंके साथ विलास ।Page Navigation
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