Book Title: Mahapurana Part 2
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 2
________________ पुरोवाक् :: Txt. महाकवि पुष्पदन्त द्वारा अपभ्रंशमें विरचित महापुराणके नाभेय चरितके में. देवेन्द्रकुमार जैनके हिन्यो अनुवादका यह दूसरा खण्ड है। वैदिक मान्यता विपरीत जन पाराणिक मान्यता अनसार जिन भरतके नामपर इस देशका नाम भारत पड़ा वे प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र थे। इस खण्डमें दिग्विजयके बाद प्रथम चक्रवर्ती भरतके द्वारा प्रवर्तित समाज और राज्य-व्यवस्थाओंके वर्णनके साथ प्रमख पात्रोंके पूर्व और उत्तर भवोंका वर्णन है। काग्यके अन्त में सभी प्रमुख पात्र तप और पैराग्यके द्वारा मोक्ष प्राप्त करते है। प्रस्तुत माभय परित--महापुराणका महत्वपूर्ण अंश होते हुए भी-अपने आपमें सम्पूर्ण परितकाध्य है, जो तीथंकर ऋषभनाथके परिसके द्वारा बताता है कि मानक संस्कृतिका मूल कर्म है। कर्ममूलक मोग उसका एक पक्ष है और दूसरा पक्ष है रागद्वेषसे मुक्त होते हुए अपने पूर्ण आध्यात्मिक व्यनित्वका विकास करमा । राग-विरागके ताने-मानेमे जुने हुए मानव जीवन कर्म बौर माग दोनों संतुलन रखते हैं। ऋषमके चरितमें जिस कर्ममूलक वीतरागताका क्रमशः विकास होता है उसकी तुलमा गीताके अनासक कर्मयोगसे की जा सकती है । ऋषमके निर्वाण प्रास होनेपर कहे गये ये शब्द, "मा मोहें तुहं संचहि दुकामु" ( 37. 24. 9.) "तुम मोहके द्वारा दुष्कर्मका संचय मत करो" अनायास गीताका स्मरण दिला देते हैं, "कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् (2. 2)।" दोनोंमें जो असमानता है वह दो कालोंकी असमानता है। कममूलक मानव संस्कृतिके प्रवर्तक हीर्थकर ऋषभनाथ स्यागमलक आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिष्ठाता भी थे। वे श्रीकृष्णसे पहले इए बताये जाते है। प्रवृत्ति और निवत्तिके दू तया संन्यासमें पासण्डके प्रवेश कारण समाज व्यवस्थामें आयी विषमताको देखते हुए गौताकारने अनासक्तिकर्मयोगके द्वारा समाजको सन्तुलित किया और कहा कि फलको आसक्तिसे शूम्य कर्म, फलको प्राप्तनिपूर्ण संन्याससे लास गुना अच्छा । ____ महाकवियों की रचनाओं में हमारे इतिहासके विभिन्न युगोंकी प्रवृत्तियोंका संवेदनशील विश्लेषण है। ऊपरसे भिन्न नामों बौर रूपोंवाली इन रचनाओंकी मूल प्रवृत्ति और चेतना एक है । मैं आशा करता है कि वर्तमान पीढ़ी तुलनात्मक अध्ययन द्वारा एकताके उस मल स्वरको खोजेगो जिसमें दर्शन और संस्कृतिकी प्रात्मा है तथा उसे अपने जीवन में साकार देकर काव्यके महत्त्वपूर्ण प्रयोजनको सफल बनायेगी। इन्दौर, 12 मई 1979. देवेन्द्र शर्मा भूतपूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय एवं कुलपति, इम्योर विश्वविद्यालय इन्दौर

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