Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ प्राचार्य कुन्दकुन्द ] [ ११ लिखा है । 'द्वादशानुप्रेक्षा' में मात्र नाम का उल्लेख है' । इसीप्रकार 'बोधपाहुड' में अपने को द्वादशांग के ज्ञाता तथा चौदह पूर्वो का विपुल प्रसार करनेवाले श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य लिखा है। अतः उनके जीवन के संबंध में बाह्य साक्ष्यों पर ही निर्भर करना पड़ता है । बाह्य साक्ष्यों में भी उनके जीवन संबंधी विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है । परवर्ती ग्रन्थकारों ने यद्यपि आपका उल्लेख बड़ी श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक किया है । शिलालेखों में भी उल्लेख पाये जाते हैं। उक्त उल्लेखों से आपकी महानता पर तो प्रकाश पड़ता है; तथापि उनसे भी आपके जीवन के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। बाह्य साक्ष्य के रूप में उपलब्ध ऐतिहासिक लेखों, प्रशस्तिपत्रों, मूर्तिलेखों, परम्परागत जनश्रुतियों एवं परवर्ती लेखकों के उल्लेखों के आधार पर विद्वानों द्वारा आलोड़ित जो भी जानकारी आज उपलब्ध है, उसका सार-संक्षेप कुल मिलाकर इसप्रकार है : आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में कोण्डकुन्दपुर (कर्नाटक) में जन्मे कुन्दकुन्द अखिल भारतवर्षीय ख्याति के दिग्गज आचार्य थे। आपके माता-पिता कौन थे और उन्होंने जन्म के समय आपका क्या नाम रखा था? - यह तो ज्ञात नहीं, पर नन्दिसंघ में दीक्षित होने के कारण दीक्षित होते समय आपका नाम पद्मनन्दी रखा गया था। विक्रम संवत् ४६ में पाप नन्दिसंघ के प्राचार्य पद पर आसीन हुए और मुनि पद्मनन्दी से प्राचार्य पद्मनन्दी हो गये। अत्यधिक सम्मान के कारण नाम लेने में संकोच की वृत्ति भारतीय समाज की अपनी सांस्कृतिक विशेषता रही है। महापुरुषों को गांव के नामों या उपनामों से संबोधित करने की वृत्ति भी इसी का परिणाम है। ' द्वादशानुप्रेक्षा, गाथा ६० २ प्रष्टपाहुड : बोधपाइड, गाथा ६१ व ६२ 3 नन्दिसंघ की पट्टावली

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