Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ ६२ ] [ प्राचाय कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम अन्य-अन्य हैं, अथवा रूप और रस भी पृथक्-पृथक् नहीं, अन्यअन्य हैं। जहाँ रूप है, वहीं रस है, जहाँ रस है, वहीं रूप है; इसीप्रकार जहाँ ज्ञान है, वहाँ दर्शन है, जहाँ दर्शन है, वहां ज्ञान है; अत: रूप और रस तथा ज्ञान और दर्शन अन्य-अन्य तो हैं, पर पृथक्-पृथक् नहीं। ध्यान रहे, 'भिन्न' शब्द का प्रयोग अन्यता के अर्थ में भी होता है और पृथकता के अर्थ में भी। अतः भिन्न शब्द का अर्थ करते समय इस बात की सावधानी अत्यन्त आवश्यक है कि भिन्न शब्द सन्दर्भानुसार किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । गुण और गुणी (द्रव्य) के बीच भी अन्यता ही होती है, पृथकता नहीं, अतः सत्ता (गुण) और द्रव्य (गुणी) में कथंचित् अन्यपना है, पृथकपना नहीं । सत्ता द्रव्य से अन्य भी है और अनन्य भी; पर पृथक् नहीं। यद्यपि इस अधिकार में वस्तु के सामान्यस्वरूप का ही प्रतिपादन है, तथापि प्रयोजनभूत आध्यात्मिक प्रेरणा सर्वत्र विद्यमान है। अधिकार के प्रारम्भ में 'पज्जयमूढ़ा हि परसमया' - पर्यायमूढ़ जीव परसमय है', 'जो पज्जएसु गिरदा जीवा पर समग त्ति णिहिट्ठाजो जीव पर्यायों में लीन हैं उन्हें परसमय कहा गया है। - इसप्रकारको पर्यायों पर से दृष्टि हटाने की प्रेरणा देनेवाली अनेक सूक्तियाँ दी गई हैं। वस्तु के सामान्य स्वरूप के प्रतिपादक इस अधिकार का समापन करते हुए टीकाकार प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं :"द्रव्यान्तरव्यतिकरापदपसारितात्मा सामान्यमज्जितसमस्तविशेषजातः । इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मी लुण्टाफ उत्कट विवेकविविक्ततत्त्वः॥' उद्दण्ड मोह की लक्ष्मी को लूट लेनेवाले, उत्कट विवेक के द्वारा आत्मतत्त्व को प्रकाशित करनेवाले शुद्धनय ने आत्मा को अन्य द्रव्यों ' प्रवचनसार, गाथा ६३ २ प्रवचनसार, गाथा ६४ 3 प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका, कलश ७

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84