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पंचास्तिकायसंग्रह ]
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इस सन्दर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वयं लिखते हैं "मग्गष्पभावरट्ठ पवयरणभत्तिप्पचोदिदेरण मया । भरिणयं पवयणसारं पंचस्थिय संगहं सुत्तं ॥ एवं पवयणसारं पंचत्थिय संग्रहं वियाणित्ता । जो सुर्यादि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ॥।'
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जिनप्रवचन के सारभूत इस 'पंचास्तिकाय संग्रह' सूत्र को मेरे द्वारा मार्ग की प्रभावना हेतु जिनप्रवचन की भक्ति से प्रेरित होकर ही कहा गया है ।
इसप्रकार जिनप्रवचन के सारभूत इस 'पंचास्तिकाय संग्रह' को जानकर जो राग-द्वेष को छोड़ता है, वह दुःख से मुक्त हो जाता है ।"
उक्त प्रथम गाथा (१७३) की टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र इस बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं :
"परमागमानुरागवेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं पंचास्तिकायसंग्रहाभिषानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति ।
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परमागम के अनुराग के वेग से चलायमान मन वाले मुझ कुन्दकुन्द द्वारा भगवान सर्वज्ञ द्वारा कहा गया और समस्त वस्तुतत्त्व का सूचक होने से अत्यन्त विस्तृत जिन-प्रवचन का सारभूतः यह 'पंचास्तिकायसंग्रह' नामक सूत्र ग्रन्थ संक्षेप में कहा गया है ।"
इस ग्रन्थ के स्पष्टरूप से दो खण्ड हैं, जिन्हें 'समयव्याख्या' नामक टीका में आचार्य अमृतचन्द्र 'श्रुतस्कन्ध' नाम से अभिहित करते हैं, जैसा कि इन दोनों खण्डों की उपसंहारात्मक अन्तिम पंक्तियों से स्पष्ट है ।
१ पंचास्तिकायसंग्रह. गाथा १७३ एवं १०३
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(i) इति समयव्याख्यायामंतन तपद्रव्यपंचास्तिकाय वर्णनः प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।
(ii) इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमागं प्रपंचवर्णनो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।