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पंचास्तिकाय संग्रह ]
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इसप्रकार १०४ गाथाओं का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त होता है ।
१०५वीं गाथा से द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रारम्भ होता है । प्रथम गाथा ( १०५ ) में मंगलाचरण के उपरान्त दूसरी व तीसरी गाथा ( १०६ व १०७) में मोक्ष के मार्गस्वरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र का निरूपण किया गया है । आगे चलकर सम्यग्दर्शन- ज्ञान के विषयभूत नवपदार्थों का वर्णन आरम्भ होता है, जो कि इस खण्ड का मूल प्रतिपाद्य है । मोक्षमार्ग का कथन तो नवपदार्थों के उपोद्घात के लिए किया गया है । इस बात का उल्लेख प्राचार्य अमृतचन्द्र ने १०७वीं गाथा की टीका के अन्त में स्वयं किया है ।
यह प्रारम्भ उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र जैसा ही है । उसमें भी सम्यग्दर्शन- ज्ञान से बात उठाकर उनके विषयभूत जीवादि तत्त्वार्थों का निरूपण किया गया है ।
प्रारम्भ तत्त्वार्थसूत्र जैसा होकर भी तत्त्वार्थों का क्रम समयसार के क्रमानुसार ही दिया गया है । तत्त्वार्थों के नाम-क्रम को दर्शानेवाली मूल गाथा इसप्रकार है :
"जीवाजीवा भाषा पुण्गं पावं च प्रासवं तेसि ।
संवरणं रिगज्जरणं बंधो मोक्खो य ते प्रट्ठा ॥ '
जीव और अजीव दो भाव तथा उनके विशेष पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंघ और मोक्ष- ये नव पदार्थ हैं ।"
इनका निरूपण भी आगे इसी क्रमानुसार है, अतः यह भी नहीं माना जा सकता कि छन्दानुरोघवश यह रखा गया होगा । लगता है प्राचार्य कुन्दकुन्द को यही क्रम इष्ट है ।
१०वीं गाथा से जीवपदार्थ का निरूपण आरम्भ होता है और १२३वीं गाथा तक चलता है । इसमें सर्वप्रथम जीव के भेद संसारी और मुक्त किये गये हैं । फिर संसारियों के एकेन्द्रियादिक भेदों का वर्णन है ।
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एकेन्द्रिय के वर्णन में विशेष जानने योग्य बात यह है कि इसमें वायुकायिक और अग्निकायिक को अस कहा गया है। यह कथन
" पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १०८