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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम काल में जन्मार्णव में निमग्न जगत को देखकर मन में किंचित् खेद होना है।"
इसके बाद १४१वीं गाथा से तीन गाथाओं में संवर एवं तीन गाथाओं में निर्जरा पदार्थ का निरूपण है। निर्जरा पदार्थ के व्याख्यान में ध्यान पर विशेष बल दिया गया है, क्योंकि सर्वाधिक निर्जरा ध्यान में ही होती है।
इसके बाद तीन गाथाओं में बंध एवं चार गाथाओं में मोक्षपदार्थ का वर्णन है। __ जयसेनाचार्य के अनुसार यहां द्वितीय महा-अधिकार समाप्त हो जाता है और अब तृतीय महा-अधिकार प्रारम्भ होता है, पर प्राचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भीतर ही 'मोक्षमार्गप्रपंचसूचक चूलिका' प्रारम्भ होती है, जो बीस गाथाओं में समाप्त होती है; और इसके साथ ही ग्रन्थ भी समाप्त हो जाता है ।
परमाध्यात्मरस से भरी हुई यह चूलिका ही पंचास्तिकायसंग्रह का प्रयोजनभूत सार है । वस्तुव्यवस्था के प्रतिपादक इस सैद्धान्तिक ग्रन्थ को प्राध्यात्मिकता प्रदान करनेवाली यह चूलिका ही है।
इसमें स्वचारित्र और परचारित्र- इसप्रकार चारित्र के दो भेद किये हैं, उन्हें ही स्वसमय और परसमय भी कहा गया है । इन स्वचारित्र और परचारित्र की परिभाषा आचार्य अमृतचन्द्र १५६वीं गाथा की टीका में इसप्रकार देते हैं :
"स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितं, परतव्ये सोपरागोपयोगवृतिः परचरितमिति ।
स्वद्रव्य में शुद्ध-उपयोगरूप परिणति स्वचारित्र है और परद्रव्य में सोपराग-उपयोगरूप परिणति परचारित्र है।"
स्वचारित्र मोक्षमार्ग है और परचारित्र बंधमार्ग- यह बात १५७ व १५८वीं गाथा में स्पष्टरूप से कही गई है।