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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम
किया गया है कि जिससे भेदविज्ञान की उत्पत्ति हो । देह क्या है, आत्मा क्या है, इन दोनों का सम्बन्ध कब से है, कैसे है ? आदि बातों को विस्तार से समझाते हुए अन्त में कहते हैं कि ज्ञानी तो ऐसा विचारता है :
"गाहं देहो रण मरणो ण चैव वारणी ण कारणं तेसि । कत्ता ग ग कारयिदा श्रणुमंता णेव कत्तीणं ॥ वेहो य मरणो वारणी पोग्गलदम्बप्पग ति खिहिट्ठा । पोग्गलबच्यं हि पुरणो पिठो परमाणुववाणं ॥ गाहं पोग्गलमइश्रो ग ते मया पोग्गला कथा पिडं । तम्हा हि ग वेहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स ॥ १
मैं देह हूँ, न मन हूँ और न वारणी ही हूँ; मैं इनका कारण भी नहीं हूँ, कर्ता भी नहीं हूँ, करानेवाला भी नहीं हूँ तथा करनेवाले का अनुमोदन करनेवाला भी नहीं हैं।
देह, मन और वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक कहे गये हैं । ये पुद्गलद्रव्य परमाणुत्रों के पिंड है ।
मैं पुद्गलद्रव्यमय नहीं हूँ और वे पुद्गलद्रव्य मेरे द्वारा पिण्डरूप भी नहीं किए गये हैं; अतः में देह नहीं हूँ तथा देह का कर्त्ता भी नहीं हूँ ।"
इसी अधिकार में वह महत्त्वपूर्ण गाथा भी है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रंथराजों में पाई जाती है और पर से भिन्न आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करनेवाली है । वह गाथा इसप्रकार है :
"नरसमरूवमगंधं श्रव्यत्तं चैवरणागुणमसद्द । जाग श्रलिंगग्गहणं जीवम रिगद्दिदुसंठारणं ॥
भगवान श्रात्मा (जीव ) में न रस है, न रूप है, न गंध है, न स्पर्श है, न शब्द है; अतः यह आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं है । रूप, रस, गंध,
१ प्रवचनसार, गाथा १६० से १६२
२ प्रवचनसार, गाथा १७२