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प्रवचनसार ] से पृथक् कर लिया है तथा समस्त विशेषों को सामान्य में लीन कर लिया है।"
इस छन्द में पर से पृथक एवं सामान्य में लीन विशेषों से भरित आत्मा को व्यक्त करनेवाले ज्ञान के अंश को शुद्धनय कहकर आत्मा की आराधना की पावन प्रेरणा दी गई है। - इसके बाद १२७वीं गाथा से १४४वी गाथा तक चलने वाले द्रव्य विशेषाधिकार में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल - इन छह द्रव्यों को जीव-अजीव, मूत्तं अमूर्त, लोक-प्रलोक, क्रियावानभाववान, सप्रदेशी-अप्रदेशी आदि युग्मों में विभाजित कर समझाया गया है।
इसके बाद १४५वीं गाथा से ज्ञान-ज्ञेयविभागाधिकार प्रारम्भ होता है, जो २००वों गाथा पर जाकर समाप्त होता है। इस अधिकार को प्रारम्भ करते हुए टोकाकार अमृतचन्द्र लिखते हैं :
"अथवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नास्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय व्यवहारजीवत्वहेतुमालोचयति'
इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व कहकर, अब ज्ञान और ज्ञेय के द्वारा प्रात्मा को निश्चित करते हुए, आत्मा को अत्यन्त विभक्त करने के लिए व्यवहारजोवत्व के हेतु का विचार करते हैं ।" ..
उक्तं पंक्ति में एकदम साफ-साफ लिखा है कि 'इसप्रकार ज्ञेय-तत्त्व कहकर'। इससे एकदम स्पष्ट है कि ज्ञेयाधिकार यहाँ समाप्त हो जाता है। फिर भी ज्ञान और ज्ञेय के बीच भेद विज्ञान करानेवाला यह अधिकार ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में सम्मिलित करना ही आचार्य अमृतचन्द्र को अभीष्ट है । २००वीं गाथा के बाद के छन्दों एवं अन्तिम पंक्ति से यह बात एकदम स्पष्ट है ।
भेदज्ञान की मुख्यता से लिखा गया होने से यह अध्यात्म का अधिकार है। इसमें ज्ञानतत्व और ज्ञेयतत्त्व का निरूपण इसप्रकार
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१ प्रवचनसार गाथा १४५ की उत्थानिका