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प्रवचनसार ]
आचार्यदेव तो यहाँ तक कहते हैं :
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" हि मण्यदि जो एवं सत्थि विसेसो त्ति पुण्यपावा । घोरमपारं संसारं मोहरणो || १
हिंडवि
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इसप्रकार जो पुण्य और पाप में अर्थात् उनके फल के उपभोग में समानता नहीं मानता है, उन्हें समानरूप से हेय नहीं मानता है; वह मोह से आच्छन्न प्राणी अपार घोर संसार में परिभ्रमरण करता है ।"
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मोह की सेना को जीतने का उपाय बताने वाली बहुचर्चित ८०वीं गाथा भी इसी अधिकार में आती है, जो इसप्रकार है :
"जो जारगदि अरहंतं दव्बत्तगुणत्तपज्जयत्तेहि । सो जारगदि श्रप्पारणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥
जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से एवं पर्यायरूप से जानता है; वह अपने श्रात्मा को जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है ।"
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इसके बाद मोह-राग-द्वेष का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उनके नाश का उपाय बताया गया है, उनके नाश करने की पावन प्रेरणा दी गई है ।
इस सन्मार्गदर्शक पुरुषार्थप्रेरक ज्ञानतत्त्व - प्रज्ञापन महाधिकार की टीका लिखते समय श्राचार्य अमृतचन्द्र का आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ अनेक स्थलों पर तीव्रतम वेग से प्रस्फुटित हुआ है । उनकी टीका की कतिपय पंक्तियां द्रष्टव्य हैं :
"प्रतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा कक्षेयम् । इसलिए मैंने मोहरूपी सेना को जीतने के लिए कमर कसी है ।"
"यद्येवं लब्धो मया मोहवाहिनी विजयोपायः । यदि ऐसा है तो मैंने मोहरूपी सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया ।"
१ प्रवचनसार, गाथा ७७
२ प्रवचनसार गाथा ७६ की तत्त्वदीपिका टीका
प्रवचनसार गाथा ८० की तत्त्वदीपिका टीका