Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ ५८ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम "जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिवं च गाणस्स । रण हथवि वा तं गाणं दिव्वं ति हि के परुर्वेति ॥' यदि अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायें सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रत्यक्ष ज्ञात न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ?" ५३ से ६८ गाथा तक चलने वाले सुखाधिकार में कहा गया है कि जिसप्रकार इन्द्रियज्ञान हेय और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, उसीप्रकार इन्द्रियसुख हेय एवं अतीन्द्रियसुख उपादेय है, क्योंकि अतीन्द्रिय सुख ही पारमार्थिक सुख है। इन्द्रियसुख तो सुखाभास है, नाममात्र का सुख है। इन्द्रादिक भी सुखी नहीं हैं। यदि वे सुखी होते तो पञ्चेन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति नहीं करते। जिन्हें विषयों में रति है, उन्हें दुःखी ही जानो। ___ इसप्रकार इस अधिकार में शुद्धोपयोग से उत्पन्न अतीन्द्रियसुख को उपादेय और इन्द्रियसुख को हेय बताया गया है । इसके बाद इन्द्रियसुख के कारण के रूप में शुभपरिणामअधिकार आता है, क्योंकि अतीन्द्रियसुख के कारणभूत शुद्धोपयोग का वर्णन तो पहले हो ही चुका है। यह अधिकार ६९वीं गाथा से ६२वीं गाथा तक चलता है। इस अधिकार में जोर देकर बताया गया है कि पापभावों से प्राप्त होनेवाली प्रतिकूलताओं में तो दुःख है ही, पुण्यभावों-शुभ परिणामों से प्राप्त होनेवाली लौकिक अनुकूलताओं एवं भोगसामग्री का उपभोग भी दुःख ही है । शुभपरिणामों से प्राप्त होनेवाले लौकिक सुख का स्वरूप स्पष्ट करते हुए प्राचार्यदेव लिखते हैं : "सपरं बाधासहिवं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंविएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥ इन्द्रियों से भोगा जानेवाला सुख पराधीन है, बाधासहित है, विच्छिन्न है, बंध का कारण है, विषम है; अतः उसे दुःख ही जानो।" प्रवचनसार, गाथा ३६ २ प्रवचनसार, गाथा ७६

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