Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ प्रवचनसार ] [ ५७ मोह (दशनमोह - मिथ्यात्व) एवं क्षोभ (चारित्रमोह- रागद्वेष) से रहित प्रात्मा के परिणाम को साम्य कहते हैं। यह साम्यभाव ही धर्म है, चारित्र है । इसप्रकार चारित्र ही धर्म है।" निश्चय से तो शुद्धोपयोगरूप वीतरागभाव ही चारित्र है, पर व्यवहार से शुभोपयोगरूप सरागभाव को भी चारित्र कहते हैं । शुद्धोपयोगरूप वीतराग चारित्र से परिणत आत्मा मुक्ति प्राप्त करता है और शुभोपयोगरूप सराग चारित्र से परिणत जीव स्वर्गादि को प्राप्त कर संसार में ही रहते हैं । इस ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन महाधिकार में सर्वप्रथम धर्म और धर्म के फल का सामान्य स्वरूप स्पष्ट कर अब शुद्धोपयोग-प्रधिकार प्रारम्भ करते हैं। इस अधिकार में शुद्धोपयोगरूप वीतराग चारित्र का स्वरूप एवं फल बताया गया है। आत्मरमरणतारूप शुद्धोपयोग का फल अतीन्द्रिय ज्ञान (अनन्तज्ञान-केवलज्ञान -सर्वज्ञता) एवं अतीन्द्रियानंद (अनन्तसुख) की प्राप्ति है। इसप्रकार १३वीं गाथा से २०वी गाथा तक शुद्धोपयोग का स्वरूप और फल बताने के बाद शुद्धोपयोग के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली सर्वज्ञता और अनन्त प्रतीन्द्रियानन्द के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए क्रमश: ज्ञानाधिकार एवं सुखाधिकार लिखे गये हैं। प्राचार्य जयसेन ने ज्ञानाधिकार का नाम 'सर्वज्ञसिद्धि-अधिकार' दिया है। इससे ही प्रतीत होता है कि ज्ञानाधिकार में सर्वज्ञता के स्वरूप पर ही विस्तार से विचार किया गया है। ३२ गाथाओं में फैले इस अधिकार में प्रस्तुत सर्वज्ञता का निरूपण अपने आप में अनुपम है, अद्वितीय है, मूलतः पठनीय है। ___ अनुत्पन्न (भावी) और विनष्ट (भूतकालीन) पर्यायों को जानने की संभावना से इनकार करने वालों को आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नांकित कथन पर ध्यान देना चाहिए :

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