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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द भौर उनके पंच परमागम
नाम से अभिहित करते हैं तो 'तात्पर्यवृत्ति' टीका में प्राचार्य जयसेन सम्यग्ज्ञानाधिकार, सम्यग्दर्शनाधिकार एवं सम्यक्चारित्राधिकार कहते हैं ।
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इस बात का स्पष्ट उल्लेख प्राचार्य जयसेन टीका के आरम्भ में ही कर देते हैं । वे अपने वर्गीकरण को प्रस्तुत करते हुए श्राचार्य अमृतचन्द्र के वर्गीकरण का भी उल्लेख करते हैं । आचार्य जयसेन ने अपने वर्गीकरण को 'तात्पर्यवृत्ति' में पातनिका के रूप में यथास्थान सर्वत्र स्पष्ट किया ही है ।
यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र के वर्गीकरण के अनुसार प्रवचनसार के प्रतिपाद्य का विहंगावलोकन अभीष्ट है ।
श्रुतस्कंधों के नाम से अभिहित इन महाधिकारों के अन्तर्गत भी अनेक अवान्तर अधिकार हैं ।
(१) ज्ञानतस्वप्रज्ञापन महाधिकार
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन या सम्यग्ज्ञानाधिकार नाम के प्रथम श्रुतस्कंध को चार अवान्तर अधिकारों में विभाजित किया गया है, जो इसप्रकार है :
(१) शुद्धोपयोग अधिकार ( २ ) ज्ञान अधिकार (३) सुख-अधिकार (४) शुभपरिणाम - अधिकार
ज्ञानतत्त्व - प्रज्ञापन की प्रारम्भिक बारह गाथाएँ मंगलाचरण, प्रतिज्ञावाक्य एवं विषय-प्रवेश के रूप में हैं; जिनमें कहा गया है कि सम्यग्दर्शन- ज्ञानप्रघान चारित्र ही धर्म है और साम्यभावरूप वीतराग चारित्र से परिणत श्रात्मा ही धर्मात्मा है ।
ग्रन्थारंभ में ही चारित्र को धर्मं घोषित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द चारित्र की परिभाषा इसप्रकार देते हैं :
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"चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति रिगद्दिठ्ठो । मोहक्खोहविहीरो परिणामो श्रप्पणी हु समो ॥'
प्रवचनसार, गाथा ७