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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम चाहते हैं । वस्तुतः तो पार्श्वनाथ भी अचेलक ही थे। पार्श्वनाथ हो क्या, सभी तीर्थकर अचेलक ही होते हैं, पर स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में वे उन्हें अपने मत की पुष्टि के लिए सचेलक मान लेते हैं।
प्राचार्य कुन्दकुन्द अपने को सीमन्धर परमात्मा से जोड़ते तो दिगम्बरों को विदेहक्षेत्र की परम्परा का जैन कहा जाने लगता, क्योंकि कुन्दकुन्द दिगम्बरों के सर्वमान्य आचार्य थे । इसप्रकार चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा के उत्तराधिकार का दावा श्वेताम्बर भाई करने लगते। अत: दिगम्बर परम्परा का प्रतिनिधित्व करनेवाले आचार्य कुन्दकुन्द का बार-बार यह घोषित करना कि मैं और मेरे ग्रन्थ भगवान महावीर, गौतम गणघर और श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा के ही हैं, अत्यन्त आवश्यक था।
किसी भी रूप में दिगम्बरों का सम्बन्ध भरतक्षेत्र से टूटकर विदेहक्षेत्र से न जुड़ जावे-हो सकता है इस बात को ध्यान में रखकर ही कुन्दकुन्द ने विदेहक्षेत्र-गमन की घटना का कहीं जिक्र तक न किया हो।
दूसरे, यह उनकी विशुद्ध व्यक्तिगत उपलब्धि थी। व्यक्तिगत उपलब्धियों का सामाजिक उपयोग न तो उचित ही है और न आवश्यक हो । अतः वे उसका उल्लेख करके उसे भुनाना नहीं चाहते थे। विदेहगमन की घोषणा के आधार पर वे अपने को महान साबित नहीं करना चाहते थे। उनकी महानता उनके ज्ञान, श्रद्धान एवं आचरण के आधार पर हो प्रतिष्ठित है । यह भी एक कारण रहा है कि उन्होंने विदेहगमन की चर्चा तक नहीं की।।
तत्कालीन समय में लोक में तो यह बात प्रसिद्ध थी ही, यदि वे भी इसका जरा-सा भी उल्लेख कर देते तो यह बात तूल पकड़ लेती और इसके अधिक प्रचार-प्रसार से लाभ के बदले हानि अधिक होती। हर चमत्कारिक घटनाओं के साथ ऐसा ही होता है। अतः उनसे संबंधित व्यक्तियों का यह कर्तव्य है कि वे इनके अनावश्यक प्रसार-प्रचार में लिप्त न हों; जहाँ तक संभव हो, उनके प्रचार-प्रसार