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समयसार ]
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इस भगवान आत्मा के अतिरिक्त सभी देहादि परपदार्थों, रागादि विकारी भावों एवं गुरणभेदादि के विकल्पों में अपनापन ही मिथ्यात्व है, प्रज्ञान है । यद्यपि देहादि परपदार्थों एवं रागादि विकारी भावों को जिनागम में व्यवहार से आत्मा कहा गया है, आत्मा का कहा गया है; पर वह व्यवहार प्रयोजन विशेषपुरतः ही सत्यार्थ है ।
जिस प्रकार अनार्य को समझाने के लिए अनार्यभाषा का उपयोग उपयोगी ही है, पर अनार्य हो जाना कदापि उपयुक्त नहीं हो सकता; उसीप्रकार परमार्थ की सिद्धि के लिए परमार्थं के प्रतिपादक व्यवहार का उपयोग उपयुक्त ही है, तथापि व्यवहार - विमुग्ध हो जाना ठीक नहीं है। तात्पर्य यह है कि व्यवहार के विषयभूत देहादि एवं रागादि को वास्तव में प्रात्मा जान लेना - मान लेना, अपना जान लेना - मान लेना कदापि उपयुक्त नहीं कहा जा सकता है ।
भगवान श्रात्मा तो देहादि में पाये जाने वाले रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्शी स्वभाववाला चेतन तत्त्व है, शब्दादि से पार अवक्तव्य तत्त्व है, इसे बाह्य चिह्नों से पहिचानना संभव नहीं है । भले ही उसे व्यवहार से वरर्णादिमय प्रर्थात् गोरा-काला कहा जाता हो, पर कहने मात्र से वह वर्णादिमय नहीं हो जाता ।
कहा भी है :
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"घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् । जोवो वर्षादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः ॥ '
जिसप्रकार 'घी का घड़ा' - इसप्रकार का वचनव्यवहार होने पर भी घड़ा घीमय नहीं हो जाता, उसीप्रकार 'वर्णादि वाला जीव' - ऐसा वचनव्यवहार होने मात्र से जीव वर्णादि वाला नहीं हो जाता ।"
यह सार है समयसार के जीवाजीवाधिकार का । सम्पूर्ण विश्व को स्व और पर - इन दो भागों में विभक्त कर, पर से भिन्न और अपने
१ प्रात्मख्याति, कलश ४०